उनकी फ़ितरत है कि वे धोखा करें हम पे लाज़िम है कि हम सोचा करें । बज़्म का माहौल कुछ ऐसा है आज हर कोई ये पूछता है “क्या करें?”। फिर जवाँ हो जाएँ दिल की हसरतें कुछ न कुछ ऐ हमनशीं ऐसा करें । वो जो फ़रमाते हैं सच होगा मगर हम भी अपनी… Continue reading उनकी फ़ितरत है कि वे धोखा करें / हंसराज ‘रहबर’
जी है जुगनू-सी ज़िंदगी हमने / हंसराज ‘रहबर’
जी है जुगनू-सी ज़िंदगी हमने दी अँधेरों को रोशनी हमने । लब सिले थे ख़मोश थी महफ़िल अनकही बात तब कही हमने । सच के बदले मिली जो बदनामी वो भी झेली ख़ुशी-ख़ुशी हमने । ज़ख़्म पर जो नमक छिड़कते थे, उनसे कर ली थी दोस्ती हमने । जिसमें नफ़रत भरी जहालत थी ख़ूब देखी… Continue reading जी है जुगनू-सी ज़िंदगी हमने / हंसराज ‘रहबर’
पानी में पौर अगन नाचे / हंसकुमार तिवारी
सावन चहुँ ओर सघन नाचे चंचल मनमोर मगन नाचे। सन-सन की बीन बजे मेघों का मांदर झम-झम की झांझ और रिमझिम का झांझर चपला चितचोर नयन नाचे। सावन चहुँ ओर सघन नाचे खेतों में धान हँसे बागों में कलियाँ तरुओं की रानी की वन-वन रंगरलियाँ यौवन मदभोर भुवन नाचे। सावन चहुँ ओर सघन नाचे कानन… Continue reading पानी में पौर अगन नाचे / हंसकुमार तिवारी
हंस कहाँ मिलिहैं अब तो बर / हंस
हंस कहाँ मिलिहैं अब तो बर भक्ति के भाव वे पूरब वारे । तीरथ मे छहरात न शांति सदाँ घहरात हैँ लोभ नगारे । मँदिर के दृढ़ जाल तनाय तहाँ बहु ब्याध पुजारी निहारे । फाँसत कामिनी कंचन की चिरियाँ धरि मूरति के बर चारे ।
ढूँढ़ रहे हम पीतलनगरी / योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
ढूँढ़ रहे हम पीतलनगरी महानगर के बीच ! यहाँ तरक्की की परिभाषा यातायात सघन और अतिक्रमण, अख़बारों में जैसे विज्ञापन नहीं सुरक्षित कोई भी अब यहाँ सफ़र के बीच ! हर दिन दूना, रात चौगुना शहर हुआ बढ़कर और प्रदूषण बनकर फ़ैला कालोनी कल्चर कहीं खो गया लगता अपना घर नंबर के बीच ! ख्याति… Continue reading ढूँढ़ रहे हम पीतलनगरी / योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
छोटा बच्चा पूछ रहा है कल के बारे में / योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
छोटा बच्चा पूछ रहा है कल के बारे में साज़िश रचकर भाग्य समय ने कुछ ऐसे बाँटा कृष्ण-पक्ष है, आँधी भी है पथ पर सन्नाटा कौन किसे अब राह दिखाए इस अँधियारे में अन्र्तर्ध्यान हुए थाली से रोटी दाल सभी कहीं खो गए हैं जीवन के सुर-लय-ताल सभी लगता ढूँढ रहे आशाएँ ज्यों इकतारे में… Continue reading छोटा बच्चा पूछ रहा है कल के बारे में / योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
एक झोंका स्नेह का / योगेन्द्र दत्त शर्मा
बस्तियों में काँच-सा मन टूट जाता है, गाँव जब पीछे शहर से छूट जाता है ! वह घना कुहरा सुबह का शाम का गहरा धुंधलका गुनगुनी दुपहर अंधेरी रात का गुमसुम तहलका रेत में आकर नदी-सा गुनगुनाता है ! गाँव जब पीछे शहर से छूट जाता है ! बीच आँगन में खड़ी तुलसी स्वयं अपराजिता-सी… Continue reading एक झोंका स्नेह का / योगेन्द्र दत्त शर्मा
आकृतियाँ और नहीं खोएँगे / योगेन्द्र दत्त शर्मा
रेत की हथेली पर गीत नहीं बोएँगे ! ढहते हैं सपनों के ताजमहल, ढह लेंगे कुहरे को लिपटाकर सूरज-से दह लेंगे पलकों पर मोती का भार नहीं ढोएँगे ! आदमक़द शीशों में धुंधलाई तसवीरें दरक-दरक जाती हैं बिम्बों की प्राचीरें आकृतियाँ अपनी अब और नहीं खोएँगे ! आभासित होता जो खड़ा हुआ गंगाजल इसके भीतर… Continue reading आकृतियाँ और नहीं खोएँगे / योगेन्द्र दत्त शर्मा
बात पते की / योगेंद्रपाल दत्त
अम्माँ, अम्माँ मुझे बताना, ‘‘क्या सच है जो कहती दादी, बिन हथियार उठाए सचमुच क्या बापू ने दी आजादी? अम्माँ बोलो, गांधी जी ने, कैसे चमत्कार दिखलाया, बिना लड़े ही ताकतवर दुश्मन को कैसे मार भगाया।’’ अम्माँ बोली, ‘‘सुन रे मुन्ना, वह सच है जो कहती दादी- सत्य-अहिंसा और प्रेम से बापू ने ली थी… Continue reading बात पते की / योगेंद्रपाल दत्त
कमाल / योगेंद्रकुमार लल्ला
दुनिया में कुछ करूँ कमाल, पर कैसे, यह बड़ा सवाल! एक उगाऊँ ऐसा पेड़ जिसमें पत्ते हों दो-चार, लेकिन उस पर चढ़कर बच्चे देख सकें सारा संसार। बड़े लोग कोशिश कर देखें चढ़ने की, पर गले न दाल। एक बनाऊँ ऐसी रेल जिसमें पहिए हों दो-चार, बिन पटरी, बिन सिग्नल दौड़े फिर भी बड़ी तेज… Continue reading कमाल / योगेंद्रकुमार लल्ला