एक झोंका स्नेह का / योगेन्द्र दत्त शर्मा

बस्तियों में काँच-सा मन
टूट जाता है,
गाँव जब पीछे शहर से
छूट जाता है !

वह घना कुहरा
सुबह का
शाम का गहरा धुंधलका
गुनगुनी दुपहर
अंधेरी
रात का गुमसुम तहलका
रेत में आकर नदी-सा
गुनगुनाता है !
गाँव जब पीछे शहर से
छूट जाता है !

बीच आँगन में खड़ी
तुलसी
स्वयं अपराजिता-सी
वत्सला अमराइयाँ
वह छाँह
पीपल की, पिता-सी
एक झोंका स्नेह का, मन
गुदगुदाता है !
गाँव जब पीछे शहर से
छूट जाता है !

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