एक झोंका स्नेह का / योगेन्द्र दत्त शर्मा

बस्तियों में काँच-सा मन टूट जाता है, गाँव जब पीछे शहर से छूट जाता है ! वह घना कुहरा सुबह का शाम का गहरा धुंधलका गुनगुनी दुपहर अंधेरी रात का गुमसुम तहलका रेत में आकर नदी-सा गुनगुनाता है ! गाँव जब पीछे शहर से छूट जाता है ! बीच आँगन में खड़ी तुलसी स्वयं अपराजिता-सी… Continue reading एक झोंका स्नेह का / योगेन्द्र दत्त शर्मा

आकृतियाँ और नहीं खोएँगे / योगेन्द्र दत्त शर्मा

रेत की हथेली पर गीत नहीं बोएँगे ! ढहते हैं सपनों के ताजमहल, ढह लेंगे कुहरे को लिपटाकर सूरज-से दह लेंगे पलकों पर मोती का भार नहीं ढोएँगे ! आदमक़द शीशों में धुंधलाई तसवीरें दरक-दरक जाती हैं बिम्बों की प्राचीरें आकृतियाँ अपनी अब और नहीं खोएँगे ! आभासित होता जो खड़ा हुआ गंगाजल इसके भीतर… Continue reading आकृतियाँ और नहीं खोएँगे / योगेन्द्र दत्त शर्मा