आई थी सखि, मैं यहाँ लेकर हर्षोच्छवास, जाऊँगी कैसे भला देकर यह निःश्वास? कहाँ जायँगे प्राण ये लेकर इतना ताप? प्रिय के फिरने पर इन्हें फिरना होगा आप। साल रही सखि, माँ की झाँकी वह चित्रकूट की मुझको, बोलीं जब वे मुझसे– ’मिला न वन ही न गेह ही तुझको!’ जात तथा जमाता समान ही… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ २
Category: Maithili Sharan Gupt Poet
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ १
नवम सर्ग [१] दो वंशों में प्रकट करके पावनी लोक-लीला, सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियाँ पूतशीला; त्यागी भी हैं शरण जिनके, जो अनासक्त गेही, राजा-योगी जय जनक वे पुण्यदेही, विदेही। विफल जीवन व्यर्थ बहा, बहा, सरस दो पद भी न हुए हहा! कठिन है कविते, तव-भूमि ही। पर यहाँ श्रम भी सुख-सा रहा। करुणे,… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ १
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ९
“भाभी, तुम पर है मुझे भरोसा दूना, तुम पूर्ण करो निज भरत-मातृ-पद ऊना। जो कोसलेश्वरी हाय! वेश ये उनके? मण्डन हैं अथवा चिन्ह शेष ये उनके?” “देवर, न रुलाओ आह, मुझे रोकर यों, कातर होते हो तात, पुरुष होकर यों? स्वयमेव राज्य का मूल्य जानते हो तुम, क्यों उसी धूल में मुझे सानते हो तुम?… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ९
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ८
हे वत्स, तुम्हें वनवास दिया मैंने ही, अब उसका प्रत्याहार किया मैंने ही।” “पर रघुकुल में जो वचन दिया जाता है, लौटा कर वह कब कहाँ लिया जाता है? क्यों व्यर्थ तुम्हारे प्राण खिन्न होते हैं, वे प्रेम और कर्तव्य भिन्न होते हैं? जाने दो, निर्णय करें भरत ही सारा– मेरा अथवा है, कथन यथार्थ… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ८
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ७
मेरे तो एक अधीर हृदय है बेटा, उसने फिर तुमको आज भुजा भर भेटा। देवों की ही चिरकाल नहीं चलती है, दैत्यों की भी दुर्वृत्ति यहाँ फलती है।” हँस पड़े देव केकयी-कथन यह सुन कर, रो दिये क्षुब्ध दुर्दैव दैत्य सिर धुनकर! “छल किया भाग्य ने मुझे अयश देने का, बल दिया उसी ने भूल… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ७
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ६
[२] तदन्तर बैठी सभा उटज के आगे, नीले वितान के तले दीप बहु जागे। टकटकी लगाये नयन सुरों के थे वे, परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे। उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह रह कर, करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह मह कर। वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी, प्रभु बोले गिरा गभीर नीरनिधि जैसी। “हे भरतभद्र, अब… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ६
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ५
उस सरसी-सी, आभरणरहित, सितवसना, सिहरे प्रभु माँ को देख, हुई जड़ रसना। “हा तात!” कहा चीत्कार समान उन्होंने, सीता सह लक्ष्मण लगे उसी क्षण रोने। उमड़ा माँओं का हृदय हाय ज्यों फट कर,– “चिर मौन हुए वे तात तुम्हीं को रटकर।” “जितने आगत हैं रहें क्यों न गतधर्मा, पर मैं उनके प्रति रहा क्रूर ही… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ५
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ४
देखो, यह मेरा नकुल देहली पर से बाहर की गति-विधि देख रहा है डर से। लो, ये देवर आ रहे बाढ़ के जल-से, पल पल में उथले-भरे, अचल-चंचल से! होगी ऐसी क्या बात, न जानें स्वामी, भय न हो उन्हें, जो सदय पुण्य-पथ-गामी।” “भाभी, भय का उपचार चाप यह मेरा, दुगुना गुणमय आकृष्ट आप यह… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ४
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ३
“मैं तो नद का परमार्थ इसे मानूँगा हित उसका उससे अधिक कौन जानूँगा? जितने प्रवाह हैं, बहें–अवश्य बहें वे, निज मर्यादा में किन्तु सदैव रहें वे। केवल उनके ही लिये नहीं यह धरणी, है औरों की भी भार-धारिणी-भरणी। जनपद के बन्धन मुक्ति-हेतु हैं सब के, यदि नियम न हों, उच्छिन्न सभी हों कब के। जब… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ३
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ २
आओ कलापि, निज चन्द्रकला दिखलाओ, कुछ मुझसे सीखो और मुझे सिखलाओ। गाओ पिक,मैं अनुकरण करूँ, तुम गाओ, स्वर खींच तनिक यों उसे घुमाते जाओ। शुक, पढ़ो,-मधुर फल प्रथम तुम्हीं ने खाया, मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया। अयि राजहंसि, तू तरस तरस क्यों रोती, तू शुक्ति-वंचिता कहीं मैथिली होती तो श्यामल तनु के श्रमज-बिन्दुमय मोती… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ २