जयद्रथ-वध / द्वितीय सर्ग / भाग १ / मैथिलीशरण गुप्त

इस भाँति पाई वीरगति सौभद्र ने संग्राम में, होने लगे उत्सव निहत भी शत्रुओं के धाम में | पर शोक पाण्डव-पक्ष में सर्वत्र ऐसा छा गया, मानो अचानक सुखद जीवन-सार सर्व बिला गया || प्रिय-मृत्यु का अप्रिय महा-संवाद पाकर विष-भरा, चित्रस्थ-सी निर्जीव मानो रह गई हट उत्तरा! संज्ञा-रहित तत्काल ही फिर वह धरा पर गिर… Continue reading जयद्रथ-वध / द्वितीय सर्ग / भाग १ / मैथिलीशरण गुप्त

जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग २ / मैथिलीशरण गुप्त

ज्यों भेद जाता भानु का कर अन्धकार-समूह को, वह पार्थ-नन्दन घुस गया त्यों भेद चक्रव्यूह को। थे वीर लाखों पर किसी से गति न उसकी रुक सकी, सब शत्रुओं की शक्ति उसके सामने सहसा थकी।। पर साथ भी उसके न कोई जा सका निज शक्ति से, था द्वार रक्षक नृप जयद्रथ सबल शिव की शक्ति… Continue reading जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग २ / मैथिलीशरण गुप्त

जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग १ / मैथिलीशरण गुप्त

वाचक ! प्रथम सर्वत्र ही ‘जय जानकी जीवन’ कहो, फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा तरंगों में बहो। दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो, होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।। अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है; न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म… Continue reading जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग १ / मैथिलीशरण गुप्त