साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ५

उस सरसी-सी, आभरणरहित, सितवसना,
सिहरे प्रभु माँ को देख, हुई जड़ रसना।
“हा तात!” कहा चीत्कार समान उन्होंने,
सीता सह लक्ष्मण लगे उसी क्षण रोने।
उमड़ा माँओं का हृदय हाय ज्यों फट कर,–
“चिर मौन हुए वे तात तुम्हीं को रटकर।”
“जितने आगत हैं रहें क्यों न गतधर्मा,
पर मैं उनके प्रति रहा क्रूर ही कर्मा।”
दी गुरु वसिष्ठ ने उन्हें सान्त्वना बढ़ कर,–
“वे समुपस्थित सर्वत्र कीर्ति पर चढ़ कर।
वे आप उऋण ही नहीं हुए जीवन से,
उलटा भव को कर गये ऋणी निज धन से।
वे चार चार दे गये एक के बदले,
तुम तक को यों तज गये टेक के बदले!
वे हैं अशोच्य, हाँ स्मरण-योग्य हैं सबके,
अभिमान-योग्य, अनुकरण-योग्य हैं सबके।”
बोले गुरु से प्रभु साश्रुवदन, बद्धांजलि–
“दे सकता हूँ क्या उन्हें अभी श्रद्धांजलि?
पितृ-देव गये हैं तृषित-भाव से सुरपुर!”
भर आया उनका गला, हुआ आतुर उर।
फिर बोले वे–“क्या करूँ और मैं कहिए,
गुरुदेव, आप ही तात-तुल्य अब रहिए।”
“वह भार प्राप्त है मुझे प्रपूर्ण प्रथम ही,
हम जब जो उनके लिए करें, है कम ही।”
“भगवन्, इस जन में भक्तिभाव अविचल है,
पर अर्पणार्थ बस पत्र-पुष्प-फल-जल है।”
“हा! याद न आवे उन्हें तुम्हारे वन की?”
प्रभु-जननी रोने लगीं व्यथा से मन की।
“वे सब दुःखों से परे आज हैं देवी,
स्वर्गीय भाव से भरे आज हैं देवी।
उनको न राम-वनवास देख दुख होगा,
अवलोक भरत का वही भाव सुख होगा।”
गुरु-गिरा श्रवण कर सभी हुए गद्गद से;
बोले तब राघव भरे स्नेह के नद-से,–
“पूजा न देख कर देव भक्ति देखेंगे,
थोड़े को भी वे सदय बहुत लेखेंगे।”
कौसल्या को अब रहा न मान-परेखा,
पर कैकेयी की ओर उन्होंने देखा।
बोली वह अपना कण्ठ परिष्कृत करके,
प्रभु के कन्धे पर वलय-शून्य कर धरके–
“है श्रद्धा पर ही श्राद्ध, न आडम्बर पर,
पर तुम्हें कमी क्या, करो, कहें जो गुरुवर।”
यह कह मानों निज भार उतारा उसने,
लक्ष्मण-जननी की ओर निहारा उसने।
कुछ कहा सुमित्रा ने न अश्रुमय मुख से,
सिर से अनुमति दी नेत्र पोंछ कर दुख से।
“जो आज्ञा” कह प्रभु घूम अनुज से बोले–
“लेकर अपने कुछ चुने वनेचर भोले,
सबका स्वागत सत्कार करो तुम तबलौं,
मैं करूँ स्वयं करणीय कार्य सब जबलौं।”

यह कह सीता-सह नदी-तीर प्रभु आये,
श्रद्धा-समेत सद्धर्म समान सुहाये।
पीछे परिजन विश्वास-सदृश थे उनके
फल-सम लक्ष्मण ने दिया आपको चुनके।

पट-मण्डप चारों ओर तनें मन भाये,
जिन पर रसाल, मधु, निम्ब, जम्बु वट छाये।
मानों बहु कटि-पट चित्रकूट ने पाये।
किंवा नूतन घन उसे घेर घिर आये।

आलान बने द्रुम-काण्ड गजों के जैसे,
गज-निगड़ वलय बन गये द्रुमों के वैसे।
च्युत पत्र पीठ पर पड़े, फुरहरी आई,
घोड़ों ने ग्रीवा मोड़ दृष्टि दौड़ाई।
नव उपनिवेश-सा बसा घड़ी भर ही में,
समझा लोगों ने कि हैं सभी घर ही में।
लग गई हाट जिसमें न पड़े कुछ देना,
ले लें उसमें जो वस्तु जिन्हें हो लेना।
बहु कन्द-मूल-फल कोल-भील लाते थे,
पहुँचाते थे सर्वत्र, प्रीति पाते थे–
“बस, पत्र-पुष्प हम वन्यचरों की सेवा,
महुवा मेवा है, बेर कलेवा, देवा!”

उस ओर पिता के भक्ति-भाव से भरके,
अपने हाथों उपकरण इकट्ठे करके,
प्रभु ने मुनियों के मध्य श्राद्ध-विधि साधी,
ज्यों दण्ड चुकावे आप अवश अपराधी।
पाकर पुत्रों में अटल प्रेम अघटित-सा,
पितुरात्मा का परितोष हुआ प्रकटित-सा।
हो गई होम की शिखा समुज्ज्वल दूनी,
मन्दानिल में मिल खिलीं धूप की धूनी।
अपना आमंत्रित अतिथि मानकर सबको,
पहले परोस परितृप्ति-दान कर सबको,
प्रभु ने स्वजनों के साथ किया भोजन यों,
सेवन करता है मन्द पवन उपवन ज्यों।

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