साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ८

हे वत्स, तुम्हें वनवास दिया मैंने ही,
अब उसका प्रत्याहार किया मैंने ही।”
“पर रघुकुल में जो वचन दिया जाता है,
लौटा कर वह कब कहाँ लिया जाता है?
क्यों व्यर्थ तुम्हारे प्राण खिन्न होते हैं,
वे प्रेम और कर्तव्य भिन्न होते हैं?
जाने दो, निर्णय करें भरत ही सारा–
मेरा अथवा है, कथन यथार्थ तुम्हारा।
मेरी-इनकी चिर पंच रहीं तुम माता,
हम दोनों के मध्यस्थ आज ये भ्राता।”

“हा आर्य! भरत के लिये और था इतना?”
“बस भाई, लो माँ, कहें और ये कितना?”
“कहने को तो है बहुत दुःख से सुख से,
पर आर्य! कहूँ तो कहूँ आज किस मुख से?
तब भी है तुमसे विनय, लौट घर जाओ।”
“इस ’जाओ’ का क्या अर्थ, मुझे बतलाओ?”
“प्रभु, पूर्ण करूँगा यहाँ तुम्हारा व्रत मैं।”
“पर क्या अयोग्य, असमर्थ और अनिरत मैं?
“यह सुनना भी है पाप, भिन्न हूँ क्या मैं?”
“इस शंका से भी नहीं खिन्न हूँ क्या मैं?–
हम एकात्मा हैं, तदपि भिन्न है काया।”
“तो इस काया पर नहीं मुझे कुछ माया।
सड़ जाय पड़ी यह इसी उटज के आगे,
मिल जायँ तुम्हीं में प्राण आर्त्त अनुरागे।”
“पर मुझे प्रयोजन अभी अनुज, इस तन का।”
“तो भार उतारो तात, तनिक इस जन का।
तुम निज विनोद में व्यथा छिपा सकते हो,
करके इतना आयास नहीं थकते हो।
पर मैं कैसे, किस लिए, सहूँ यह इतना?”
“मुझ जैसे मेरे लिए तुम्हें यह कितना?
शिष्टागम निष्फल नहीं कहीं होता है,
वन में भी नागर-भाव बीज बोता है।
कुछ देख रही है दूर दृष्टि-मति मेरी,
क्या तुम्हें इष्ट है वीर, विफल-गति मेरी?
तुमने मेरा आदेश सदा से माना,
हे तात, कहो क्यों आज व्यर्थ हठ ठाना?
करने में निज कर्त्तव्य कुयश भी यश है।”
“हे आर्य, तुम्हारा भरत अतीव अवश है।
क्या कहूँ और क्या करूँ कि मैं पथ पाऊँ?
क्षण भर ठहरो, मैं ठगा न सहसा जाऊँ।”

सन्नाटा-सा छा गया सभा में क्षण भर,
हिल सका न मानों स्वयं काल भी कण भर।
जावालि जरठ को हुआ मौन दुःसह-सा,
बोले वे स्वजटिल शीर्ष डुला कर सहसा–
“ओहो! मुझको कुछ नहीं समझ पड़ता है,
देने को उलटा राज्य द्वन्द्व लड़ता है।
पितृ-वध तक उसके लिए लोग करते हैं।”
“हे मुने, राज्य पर वही मर्त्य मरते हैं।”
“हे राम, त्याग की वस्तु नहीं वह ऐसी।”
“पर मुने, भोग की भी न समझिए वैसी।”
“हे तरुण, तुम्हें संकोच और भय किसका?”
“हे जरठ, नहीं इस समय आपको जिसका!”
“पशु-पक्षी तक हे वीर, स्वार्थ-लक्षी हैं।”
“हे धीर, किन्तु मैं पशु न आप पक्षी हैं!”
“मत की स्वतन्त्रता विशेषता आर्यों की,
निज मत के ही अनुसार क्रिया कार्यों की।
हे वत्स, विफल परलोक-दृष्टि निज रोको।”
“पर यही लोक हे तात, आप अवलोको।”
“यह भी विनश्य है, इसीलिए हूँ कहता।”
“क्या?-हम रहते, या राज्य हमारा रहता?”
“मैं कहता हूँ–सब भस्मशेष जब लोगो,
तब दुःख छोड़ कर क्यों न सौख्य ही भोगो?”
“पर सौख्य कहाँ है, मुने, आप बतलावें?”
“जनसाधारण ही जहाँ मानते आवें।”
“पर साधारण जन आप न हमको जानें,
जनसाधारण के लिए भले ही मानें।”
“यह भावुकता है।” “हमें इसी में सुख है;
फिर पर-सुख में क्यों चारुवाक्य, यह दुख है?”
तब वामदेव ने कहा–“धन्य भावुकता,
कर सकता उसका मूल्य कौन है चुकता?
भावुक जन से ही महत्कार्य होते हैं,
ज्ञानी संसार असार मान रोते हैं।”
“किन से विवाद हे आर्य, आप करते हैं?”
बोले लक्ष्मण–“ये सौख्य खोज मरते हैं!
सुख मिले जहाँ पर जिन्हें, स्वाद वे चक्खें,
पर औरों का भी ध्यान कृपा कर रक्खें।
शासन सब पर है, इसे न कोई भूले,–
शासक पर भी, वह भी न फूल कर ऊले।”

हँस कर जावालि वशष्टि ओर तब हेरे,
मुसका कर गुरु ने कहा–“शिष्य हैं मेरे!
मन चाहे जैसे, और परीक्षा लीजे,
आवश्यक हो तो स्वयं स्वदीक्षा दीजे।”
प्रभु बोले–“शिक्षा वस्तु सदैव अधूरी,
हे भरतभद्र, हो बात तुम्हारी पूरी।”

“हे देव, विफल हो वार वार भी, मन की,–
आशा अटकी है अभी यहाँ इस जन की।
जब तक पितुराज्ञा आर्य यहाँ पर पालें,
तब तक आर्या ही चलें,–स्वराज्य सँभालें।”
“भाई, अच्छा प्रस्ताव और क्या इससे?
हमको-तुमको सन्तोष सभी को जिससे।”
“पर मुझको भी हो तब न?” मैथिली बोलीं–
कुछ हुईं कुटिल-सी सरल दृष्टियाँ भोलीं।
“कह चुके अभी मुनि-’सभी स्वार्थ ही देखें।’
अपने मत में वे यहाँ मुझी को लेखें!”

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *