साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ४

देखो, यह मेरा नकुल देहली पर से
बाहर की गति-विधि देख रहा है डर से।
लो, ये देवर आ रहे बाढ़ के जल-से,
पल पल में उथले-भरे, अचल-चंचल से!
होगी ऐसी क्या बात, न जानें स्वामी,
भय न हो उन्हें, जो सदय पुण्य-पथ-गामी।”

“भाभी, भय का उपचार चाप यह मेरा,
दुगुना गुणमय आकृष्ट आप यह मेरा।
कोटिक्रम-सम्मुख कौन टिकेगा इसके–
आई परास्तता कर्म भोग में जिसके।
सुनता हूँ, आये भरत यहाँ दल-बल से,
वन और गगन है विकल चमू-कलकल से।
विनयी होकर भी करें न आज अनय वे,
विस्मय क्या है, क्या नहीं स्वमातृतनय वे?
पर कुशल है कि असमर्थ नहीं हैं हम भी,
जैसे को तैसे, एक बार हो यम-भी।
हे आर्य, आप गम्भीर हुए क्यों ऐसे–
निज रक्षा में भी तर्क उठा हो जैसे?
आये होंगे यदि भरत कुमति-वश वन में,
तो मैंने यह संकल्प किया है मन में–
उनको इस शर का लक्ष्य का चुनूँगा क्षण में,–
प्रतिषेध आपका भी न सुनूँगा रण में!”

“गृह-कलह शान्त हो, हाय! कुशल हो कुल की,
अक्षुण्ण अतुलता रहै सदैव अतुल की।
विग्रह के ग्रह का कोप न जानें अब क्यों,
आ बैठे देवर, राज्य छोड़ तुम जब यों?”

“भद्रे, न भरत भी उसे छोड़ आये हों,
मातुश्री से भी मुँह न मोड़ आये हों।
लक्ष्मण, लगता है यही मुझे हे भाई,
पीछे न प्रजा हो पुरी शून्य कर आई।”
“आशा अन्तःपुर-मध्यवासिनी कुलटा,
सीधे हैं आप, परन्तु जगत है उलटा।
जब आप पिता के वचन पाल सकते हैं,
तब माँ की आज्ञा भरत टाल सकते हैं?”
“भाई, कहने को तर्क अकाट्य तुम्हारा,
पर मेरा ही विश्वास सत्य है सारा।
माता का चाहा किया राम ने आहा!
तो भरत करेंगे क्यों न पिता का चाहा?”
“मानव-मन दुर्बल और सहज चंचल है,
इस जगती-तल में लोभ अतीव प्रबल है।
देवत्व कठिन, दनुजत्व सुलभ है नर को,
नीचे से उठना सहज कहाँ ऊपर को?”
“पर हम क्यों प्राकृत-पुरुष आप को मानें?
निज पुरुषोत्तम की प्रकृति क्यों न पहचानें?
हम सुगति छोड़ क्यों कुगति विचारें जन की?
नीचे-ऊपर सर्वत्र तुल्य गति मन की।”
“बस हार गया मैं आर्य, आपके आगे,
तब भी तनु में शत पुलक भाव हैं जागे!”
“देवर, मैं तो जी गई, मरी जाती थी,
विग्रह की दारुण मूर्ति दृष्टि आती थी।
अच्छा ले आये आर्यपुत्र, तुम इनको;
ये तुम्हें छोड़ कब, कहाँ मानते किनको?
सन्तोष मुझे है आज, यहाँ देवर ये;
हा! क्या जानें, क्या न कर बैठते घर ये।”
“पर मैं चिन्तित हूँ, सहज प्रेम के कारण
हठ पूर्वक मुझको भरत करें यदि वारण?
वह देखो, वन के अन्तराल से निकले,
मानों दो तारे क्षितिज-जाल से निकले।
वे भरत और शत्रुघ्न, हमीं दो मानों,
फिर आया हमको यहाँ प्रिये, तुम जानों।”
कहते-कहते प्रभु उठे, बढ़े वे आगे,
सीता-लक्ष्मण भी संग चले अनुरागे।

देखी सीता ने स्वयं साक्षिणी हो हो,–
प्रतिमाएँ सम्मुख एक एक की दो दो!
रह गये युग्म स्वर्वैद्य आप ही आधे
जगती ने थे निज चार चिकित्सक साधे!
दोनों आगत आ गिरे दण्डवत् नीचे,
दोनों से दोनों गये हृदय पर खींचे।
सीता-चरणामृत बना नयन-जल उनका,
इनका दृगम्बु अभिषेक सुनिर्मल उनका!
“रोकर रज में लोटो न भरत, ओ भाई,
यह छाती ठंढी करो सुमुख, सुखदायी।
आँखों के मोती यों न बिखेरो, आओ,
उपहार-रूप यह हार मुझे पहनाओ।”
“हा आर्य, भरत का भाग्य रजोमय ही है,
उर रहते उर्वी उसे तुम्हीं ने दी है।
उस जड़ जननी का विकृत वचन तो पाला,
तुमने इस जन की ओर न देखा-भाला!”
“ओ निर्दय, करदे न यों निरुत्तर मुझको,
रे भाई, कहना यही उचित क्या तुझको?
चिरकाल राम है भरत-भाव का भूखा,
पर उसको तो कर्तव्य मिला है रूखा!”

इतने में कलकल हुआ वहाँ जय जय का,
गुरुजन सह पुरजन-पंच-सचिव-समुदय का।
हय-गज-रथादि निज नाद सुनाते आये,
खोये-से अपने प्राण सभी ने पाये।
क्या ही विचित्रता चित्रकूट ने पाई,
सम्पूर्ण अयोध्या जिसे खोजती आई।
बढ़ कर प्रणाम कर वसिष्ठादि मुनियों को,
प्रभु ने आदर से लिया गृही गुनियों को।

जिस पर पाले का एक पर्त-सा छाया,
हत जिसकी पंकज-पंक्ति, अचल-सी काया,

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