साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ २

आओ कलापि, निज चन्द्रकला दिखलाओ,
कुछ मुझसे सीखो और मुझे सिखलाओ।
गाओ पिक,मैं अनुकरण करूँ, तुम गाओ,
स्वर खींच तनिक यों उसे घुमाते जाओ।
शुक, पढ़ो,-मधुर फल प्रथम तुम्हीं ने खाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
अयि राजहंसि, तू तरस तरस क्यों रोती,
तू शुक्ति-वंचिता कहीं मैथिली होती
तो श्यामल तनु के श्रमज-बिन्दुमय मोती
निज व्यजन-पक्ष से तू अँकोर सुध खोती,–
जिन पर मानस ने पद्म-रूप मुँह बाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
ओ निर्झर, झरझर नाद सुना कर झड़ तू।
पथ के रोड़ों से उलझ-सुलझ, बढ़, अड़ तू।
ओ उत्तरीय, उड़, मोद-पयोद, घुमड़ तू,
हम पर गिरि-गद्गद भाव, सदैव उमड़ तू।
जीवन को तूने गीत बनाया, गाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
ओ भोली कोल-किरात-भिल्ल-बालाओ,
मैं आप तुम्हारे यहाँ आगई, आओ।
मुझको कुछ करने योग्य काम बतलाओ,
दो अहो! नव्यता और भव्यता पाओ।
लो, मेरा नागर भाव भेट जो लाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
सब ओर लाभ ही लाभ बोध-विनिमय में,
उत्साह मुझे है विविध वृत्त-संचय में।
तुम अर्द्ध नग्न क्यों रहो अशेष समय में,
आओ, हम कातें-बुनें गान की लय में।
निकले फूलों का रंग, ढंग से ताया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
थे समाधिस्थ से राम अनाहत सुनते,
स्वर पत्र पत्र पर प्रेम-जाल थे बुनते।
कितने मीठे हैं, मरे बीन के झाले,
तरु झूम रहे थे हरे-भरे मतवाले।
“गाओ मैथिलि, स्वच्छन्द, राम के रहते;
सुन ले कोई भी आज मुझे यह कहते–
निश्चिन्त रहे, जो करे भरोसा मेरा,
बस, मिले प्रेम का मुझे परोसा मेरा।
आनन्द हमारे ही अधीन रहता है,
तब भी विषाद नरलोक व्यर्थ सहता है।
करके अपना कर्तव्य रहो संतोषी,
फिर सफल हो कि तुम विफल, न होगे दोषी।
निश्चिन्त नारियाँ आत्म-समर्पण करके,
स्वीकृति में ही कृत्कृत्य भाव हैं नर के।
गौरव क्या है, जन-भार वहन करना ही,
सुख क्या है, बढ़ कर दुःख सहन करना ही।”
कलिकाएँ खिलने लगीं, फूल फिर फूले,
खग-मृग भी चरना छोड़ सभी सुध भूले!
सन्नाटे में था एक यही रव छाया–
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया!
देवर के शर की अनी बनाकर टाँकी
मैंने अनुजा की एक मूर्त्ति है आँकी।
आँसू नयनों में, हँसी वदन पर बाँकी,
काँटे समेटती, फूल छींटती झाँकी!
निज मन्दिर उसने यही कुटीर बनाया!
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।”
“हा! ठहरो, बस, विश्राम प्रिये, लो थोड़ा,
हे राजलक्ष्मि, तुमने न राम को छोड़ा।
श्रम करो, स्वेदजल स्वास्थ्य-मूल में ढालो,
पर तुम यति का भी नियम स्वगति में पालो।
तन्मय हो तुम-सा किसी कार्य में कोई,
तुमने अपनी भी आज यहाँ सुध खोई!
हो जाना लता न आप लता-संलग्ना,
करतल तक तो तुम हुईं नवल-दल-मग्ना!
ऐसा न हो कि मैं फिरूँ खोजता तुमको
है मधुप ढूँढ़ता यथा मनोज्ञ कुसुम को!
वह सीताफल जब फलै तुम्हारा चाहा,–
मेरा विनोद तो सफल,–हँसीं तुम आहा!”
“तुम हँसो, नाथ निज इन्द्रजाल के फल पर,
पर ये फल होंगे प्रकट सत्य के बल पर।
उनमें विनोद, इनमें यथार्थता होगी,
मेरे श्रम-फल के रहें सभी रस-भोगी।
तुम मायामय हो तदपि बड़े भोले हो,
हँसने में भी तो झूठ नहीं बोले हो।
हो सचमुच क्या आनन्द, छिपूँ मैं वन में,
तुम मुझे खोजते फिरो गभीर गहन में!”
“आमोदिनि, तुमको कौन छिपा सकता है?
अन्तर को अन्तर अनायास तकता है।
बैठी है सीता सदा राम के भीतर,
जैसे विद्युद्द्युति घनश्याम के भीतर।”

“अच्छा, ये पौधे कहो फलेंगे कब लौं?
हम और कहीं तो नहीं चलेंगे तब लौं?”
“पौधे? सींचो ही नहीं, उन्हें गोड़ो भी,
डालों को, चाहे जिधर, उधर मोड़ो भी।”
“पुरुषों को तो बस राजनीति की बातें!
नृप में, माली में, काट छाँट की घातें।
प्राणेश्वर, उपवन नहीं, किन्तु यह वन है,
बढ़ते हैं विटपी जिधर चाहता मन है।
बन्धन ही का तो नाम नहीं जनपद है?
देखो, कैसा स्वच्छन्द यहाँ लघु नद है।
इसको भी पुर में लोग बाँध लेते हैं।”
“हाँ, वे इसका उपयोग बढ़ा देते हैं।”
“पर इससे नद का नहीं, उन्हीं का हित है,
पर बन्धन भी क्या स्वार्थ-हेतु समुचित है?”

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