तुम्हारी आँखों का बचपन / जयशंकर प्रसाद

तुम्हारी आँखों का बचपन ! खेलता था जब अल्हड़ खेल, अजिर के उर में भरा कुलेल, हारता था हँस-हँस कर मन, आह रे वह व्यतीत जीवन ! तुम्हारी आँखों का बचपन ! साथ ले सहचर सरस वसन्त, चंक्रमण कर्ता मधुर दिगन्त , गूँजता किलकारी निस्वन , पुलक उठता तब मलय-पवन. तुम्हारी आँखों का बचपन !… Continue reading तुम्हारी आँखों का बचपन / जयशंकर प्रसाद

आह रे,वह अधीर यौवन / जयशंकर प्रसाद

आह रे, वह अधीर यौवन ! मत्त-मारुत पर चढ़ उद्भ्रांत , बरसने ज्यों मदिरा अश्रांत- सिंधु वेला-सी घन मंडली, अखिल किरणों को ढँककर चली, भावना के निस्सीम गगन, बुद्धि-चपला का क्षण –नर्तन- चूमने को अपना जीवन , चला था वह अधीर यौवन! आह रे, वह अधीर यौवन ! अधर में वह अधरों की प्यास ,… Continue reading आह रे,वह अधीर यौवन / जयशंकर प्रसाद

आँखों से अलख जगाने को / जयशंकर प्रसाद

आँखों से अलख जगाने को, यह आज भैरवी आई है . उषा-सी आँखों में कितनी, मादकता भरी ललाई है . कहता दिगन्त से मलय पवन प्राची की लाज भरी चितवन- है रात घूम आई मधुबन , यह आलस की अंगराई है . लहरों में यह क्रीड़ा-चंचल, सागर का उद्वेलित अंचल . है पोंछ रहा आँखें… Continue reading आँखों से अलख जगाने को / जयशंकर प्रसाद

उस दिन जब जीवन के पथ में / जयशंकर प्रसाद

उस दिन जब जीवन के पथ में, छिन्न पात्र ले कम्पित कर में , मधु-भिक्षा की रटन अधर में , इस अनजाने निकट नगर में , आ पँहुचा था एक अकिंचन . उस दिन जब जीवन के पथ में, लोगों की आँखे ललचाईं , स्वयं मानने को कुछ आईं , मधु सरिता उफनी अकुलाई ,… Continue reading उस दिन जब जीवन के पथ में / जयशंकर प्रसाद

हे सागर संगम अरुण नील / जयशंकर प्रसाद

हे सागर संगम अरुण नील ! अतलांत महा गम्भीर जलधि – तज कर अपनी यह नियत अवधि, लहरों के भीषण हासों में , आकर खारे उच्छवासों में युग-युग की मधुर कामना के – बंधन को देता जहाँ ढील . हे सागर संगम अरुण नील ! पिंगल किरणों-सी मधु-लेखा, हिम-शैल बालिका को तूने कब देखा !… Continue reading हे सागर संगम अरुण नील / जयशंकर प्रसाद

अरी वरुणा की शांत कछार / जयशंकर प्रसाद

अरी वरुणा की शांत कछार ! तपस्वी के वीराग की प्यार ! सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन कुञ्ज! जगत नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप,सुमनों के पुञ्ज! तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार. स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूंजता था जिससे संसार . अरी वरुणा की शांत कछार… Continue reading अरी वरुणा की शांत कछार / जयशंकर प्रसाद

मधुप गुनगुनाकर कह जाता / जयशंकर प्रसाद

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी अपनी, मुरझा कर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज धनि. इस गंभीर अनंत नीलिमा में अस्संख्य जीवन-इतिहास- यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास. तब बही कहते हो-काह डालूं दुर्बलता अपनी बीती ! तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे – यह गागर रीती. किन्तु कहीं ऐसा ना… Continue reading मधुप गुनगुनाकर कह जाता / जयशंकर प्रसाद

निज अलकों के अंधकार में / जयशंकर प्रसाद

निज अलकों के अंधकार में तुम कैसे छिप जाओगे? इतना सजग कुतूहल! ठहरो,यह न कभी बन पाओगे ! आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप-चाँप कर उन्हें नहीं- दुख दो इतना, अरे अरुणिमा उषा-सी वह उधर बही. वसुधा चरण चिह्न सी बनकर यहीं पड़ी रह जावेगी . प्राची रज कुंकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी.… Continue reading निज अलकों के अंधकार में / जयशंकर प्रसाद

ले चल वहाँ भुलावा देकर / जयशंकर प्रसाद

ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक ! धीरे-धीरे । जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी, निश्छल प्रेम-कथा कहती हो- तज कोलाहल की अवनी रे । जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया, ढीली अपनी कोमल काया, नील नयन से ढुलकाती हो- ताराओं की पाँति घनी रे । जिस गम्भीर मधुर छाया में, विश्व चित्र-पट… Continue reading ले चल वहाँ भुलावा देकर / जयशंकर प्रसाद

प्रलय की छाया / जयशंकर प्रसाद

थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की सन्ध्या हैं आज भी तो धूसर क्षितिज में! और उस दिन तो; निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से सीखती थी सौरभ से भरी रंग-रलियाँ। दूरागत वंशी रव गूँजता था धीवरों की छोटी-छोटी नावों से। मेरे उस यौवन के मालती-मुकुल में रंध्र खोजती थी, रजनी की नीली किरणें उसे… Continue reading प्रलय की छाया / जयशंकर प्रसाद