हे सागर संगम अरुण नील / जयशंकर प्रसाद

हे सागर संगम अरुण नील !
अतलांत महा गम्भीर जलधि –
तज कर अपनी यह नियत अवधि,
लहरों के भीषण हासों में ,
आकर खारे उच्छवासों में
युग-युग की मधुर कामना के –
बंधन को देता जहाँ ढील .
हे सागर संगम अरुण नील !
पिंगल किरणों-सी मधु-लेखा,
हिम-शैल बालिका को तूने कब देखा !
कलरव संगीत सुनाती ,
किस अतीत युग की गाथा गाती आती .
आगमन अनंत मिलन बनकर-
बिखराता फेनिल तरल खील !
हे सागर संगम अरुण नील !
आकुल अकूल बनने आती,
अब तक तो है वह आती ,
देवलोक की अमृत कथा की माया –
छोड़ हरित कानन की आलस छाया –
विश्राम माँगती अपना .
जिसका देखा था सपना –
निस्सीम व्योम तल नील अंक में ,
अरुण ज्योति की झील बनेगी कब सलिल?
हे सागर संगम अरुण नील !

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