अशोक की चिन्ता / जयशंकर प्रसाद

जलता है यह जीवन पतंग जीवन कितना? अति लघु क्षण, ये शलभ पुंज-से कण-कण, तृष्णा वह अनलशिखा बन दिखलाती रक्तिम यौवन। जलने की क्यों न उठे उमंग? हैं ऊँचा आज मगध शिर पदतल में विजित पड़ा, दूरागत क्रन्दन ध्वनि फिर, क्यों गूँज रही हैं अस्थिर कर विजयी का अभिमान भंग? इन प्यासी तलवारों से, इन… Continue reading अशोक की चिन्ता / जयशंकर प्रसाद

लहर2 / जयशंकर प्रसाद

(1) उठ उठ री लघु लोल लहर! करुणा की नव अंगड़ाई-सी, मलयानिल की परछाई-सी इस सूखे तट पर छिटक छहर! शीतल कोमल चिर कम्पन-सी, दुर्ललित हठीले बचपन-सी, तू लौट कहाँ जाती है री यह खेल खेल ले ठहर-ठहर! उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती, नर्तित पद-चिह्न बना जाती, सिकता की रेखायें उभार भर जाती अपनी तरल-सिहर! तू… Continue reading लहर2 / जयशंकर प्रसाद

लहर1 / जयशंकर प्रसाद

वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ? जब सावन घन सघन बरसते इन आँखों की छाया भर थे सुरधनु रंजित नवजलधर से- भरे क्षितिज व्यापी अंबर से मिले चूमते जब सरिता के हरित कूल युग मधुर अधर थे प्राण पपीहे के स्वर वाली बरस रही थी जब हरियाली रस जलकन मालती मुकुल से जो मदमाते… Continue reading लहर1 / जयशंकर प्रसाद

श्रीकृष्ण-जयन्ती / जयशंकर प्रसाद

कंस-हृदय की दुश्चिन्ता-सा जगत् में अन्धकार है व्याप्त, घोर वन है उठा भीग रहा है नीरद अमने नीर से मन्थर गति है उनकी कैसी व्याम में रूके हुए थे, ‘कृष्ण-वर्ण’ को देख लें- जो कि शीघ्र ही लज्जित कर देगा उन्हें जगत् आन्तरिक अन्धकार से व्याप्त है उसका ही यह वाह्य रूप है व्योम में… Continue reading श्रीकृष्ण-जयन्ती / जयशंकर प्रसाद

वीर बालक / जयशंकर प्रसाद

भारत का सिर आज इसी सरहिन्द मे गौरव-मंडित ऊँचा होना चाहता अरूण उदय होकर देता है कुछ पता करूण प्रलाप करेगा भैरव घोषणा पाच्चजन्य बन बालक-कोमल कंठ ही धर्म-घोषणा आज करेगा देश में जनता है एकत्र दुर्ग के समाने मान धर्म का बालक-युगल-करस्थ है युगल बालकों की कोमल यै मूर्तियां दर्पपूर्ण कैसी सुन्दर है लग… Continue reading वीर बालक / जयशंकर प्रसाद

कुरूक्षेत्र / जयशंकर प्रसाद

नील यमुना-कूल में तब गोप-बालक-वेश था गोप-कुल के साथ में सौहार्द-प्रेम विशेष था बाँसुरी की एक ही बस फूंकी तो पर्याप्त थी गोप-बालों की सभा सर्वत्र ही फिर प्राप्त थी उस रसीले राग में अनुराग पाते थे सभी प्रेम के सारल्य ही का राग गाते थे सभी देख मोहन को न मोहे, कौन था इस… Continue reading कुरूक्षेत्र / जयशंकर प्रसाद

शिल्प सौन्दर्य / जयशंकर प्रसाद

कोलाहल क्यों मचा हुआ है ? घोर यह महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा अथवा तापाें के मिस से हुंकार यह करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा नहीं; महा संघर्षण से होकर व्यथित हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा आर्यमंदिरों के सब ध्वंस बचे हुए धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में– उनके, जिनके वे थे… Continue reading शिल्प सौन्दर्य / जयशंकर प्रसाद

भरत / जयशंकर प्रसाद

हिमगिरि का उतुंग श्रृंग है सामने खड़ा बताता है भारत के गर्व को पड़ती इस पर जब माला रवि-रश्मि की मणिमय हो जाता है नवल प्रभात में बनती है हिम-लता कुसुम-मणि के खिले पारिजात का पराग शुचि धूलि है सांसारिक सब ताप नहीं इस भूमि में सूर्य-ताप भी सदा सुखद होता यहाँ हिम-सर में भी… Continue reading भरत / जयशंकर प्रसाद

चित्रकूट (4) / जयशंकर प्रसाद

सीता ने जब खोज लिया सौमित्र को तरू-समीप में, वीर-विचित्र चरित्र को ‘लक्ष्मण ! आवो वत्स, कहाँ तुम चढ़ रहे’ प्रेम-भरे ये वचन जानकी ने कहे ‘आये, होगा स्वादु मधुर फल यह पका देखो, अपने सौरभ से है सह छका’ लक्ष्मण ने यह कहा और अति वेग से चले वृक्ष की ओर, चढ़े उद्वेग से… Continue reading चित्रकूट (4) / जयशंकर प्रसाद

चित्रकूट (3) / जयशंकर प्रसाद

सोते अभी खग-वृन्द थे निज नीड़ में आराम से ऊषा अभी निकली नहीं थी रविकरोज्ज्वल-दास से केवल टहनियाँ उच्च तरूगण की कभी हिलती रहीं मलयज पवन से विवस आपस में कभी मिलती रहीं ऊँची शिखर मैदान पर्णकुटीर, सब निस्तब्ध थे सब सो रहे; जैसे आभागों के दुखद प्रारब्ध थे झरने पहाड़र चल रहे थे, मधुर… Continue reading चित्रकूट (3) / जयशंकर प्रसाद