काली आँखों का अंधकार / जयशंकर प्रसाद

काली आँखों का अंधकार जब हो जाता है वार पार, मद पिए अचेतन कलाकार उन्मीलित करता क्षितित पार- वह चित्र ! रंग का ले बहार जिसमे है केवल प्यार प्यार! केवल स्मृतिमय चाँदनी रात, तारा किरणों से पुलक गात मधुपों मुकुलों के चले घात, आता है चुपके मलय वात, सपनो के बादल का दुलार. तब… Continue reading काली आँखों का अंधकार / जयशंकर प्रसाद

चिर तृषित कंठ से तृप्त-विधुर / जयशंकर प्रसाद

चिर संचित कंठ से तृप्त-विधुर वह कौन अकिंचन अति आतुर अत्यंत तिरस्कृत अर्थ सदृश ध्वनि कम्पित करता बार-बार, धीरे से वह उठता पुकार – मुझको न मिला रे कभी प्यार . सागर लहरों सा आलिंगन निष्फल उठकर गिरता प्रतिदिन जल वैभव है सीमा-विहीन वह रहा एक कन को निहार, धीरे से वह उठता पुकार- मुझको… Continue reading चिर तृषित कंठ से तृप्त-विधुर / जयशंकर प्रसाद

जगती की मंगलमयी उषा बन / जयशंकर प्रसाद

जगती की मंगलमयी उषा बन, करुणा उस दिन आई थी, जिसके नव गैरिक अंचल की प्राची में भरी ललाई थी . भय- संकुल रजनी बीत गई, भव की व्याकुलता दूर गई, घन-तिमिर-भार के लिए तड़ित स्वर्गीय किरण बन आई थी. खिलती पंखुरी पंकज- वन की, खुल रही आँख रिषी पत्तन की, दुख की निर्ममता निरख… Continue reading जगती की मंगलमयी उषा बन / जयशंकर प्रसाद

अपलक जगती हो एक रात / जयशंकर प्रसाद

अपलक जगती हो एक रात! सब सोये हों इस भूतल में, अपनी निरीहता संबल में, चलती हों कोई भी न बात! पथ सोये हों हरयाली में, हों सुमन सो रहे डाली में, हों अलस उनींदी नखत पाँत! नीरव प्रशांत का मौन बना , चुपके किसलय से बिछल छना; थकता हों पंथी मलय- वात. वक्षस्थल में… Continue reading अपलक जगती हो एक रात / जयशंकर प्रसाद

वसुधा के अंचल पर / जयशंकर प्रसाद

वसुधा के अंचल पर यह क्या कन- कन सा गया बिखर ? जल-शिशु की चंचल क्रीड़ा- सा , जैसे सरसिज डाल पर . लालसा निराशा में ढलमल वेदना और सुख में विह्वल यह या है रे मानव जीवन? कितना है रहा निखर. मिलने चलते अब दो कन, आकर्षण – मय चुम्बन बन, दल के नस-नस… Continue reading वसुधा के अंचल पर / जयशंकर प्रसाद

जग की सजल कालिमा रजनी / जयशंकर प्रसाद

जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचन्द्र दिखा जाओ . ह्रदय अँधेरी झोली इनमे ज्योति भीख देने आओ . प्राणों की व्याकुल पुकार पर एक मींड़ ठहरा जाओ . प्रेम वेणु की स्वर- लहरी में जीवन – गीत सुना जाओ . स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो . जीवन-धन ! इस जले जगत… Continue reading जग की सजल कालिमा रजनी / जयशंकर प्रसाद

मेरी आँखों की पुतली में / जयशंकर प्रसाद

मेरी आँखों की पुतली में तू बन कर प्रान समां जा रे ! जिससे कण कण में स्पंदन हों, मन में मलायानिल चंदन हों, करुणा का नव अभिनन्दन हों- वह जीवन गीत सुना जा रे ! खिंच जाय अधर पर वह रेखा- जिसमें अंकित हों मधु लेखा, जिसको यह विश्व करे देखा, वह स्मिति का… Continue reading मेरी आँखों की पुतली में / जयशंकर प्रसाद

कितने दिन जीवन जल-निधि में / जयशंकर प्रसाद

कितने दिन जीवन जल-निधि में – विकल अनिल से प्रेरित होकर लहरी, कूल चूमने चल कर उठती गिरती सी रुक-रुक कर सृजन करेगी छवि गति-विधि में ! कितनी मधु- संगीत- निनादित गाथाएँ निज ले चिर-संचित तस्ल तान गावेगी वंचित ! पागल – सी इस पथ निरवधि में! दिनकर हिमकर तारा के दल इसके मुकुर वक्ष… Continue reading कितने दिन जीवन जल-निधि में / जयशंकर प्रसाद

कोमल कुसुमों की मधुर रात / जयशंकर प्रसाद

कोमल कुसुमों की मधुर रात ! शशि – शतदल का यह सुख विकास, जिसमें निर्मल हो रहा हास, उसकी सांसो का मलय वात ! कोमल कुसुमों की मधुर रात ! वह लाज भरी कलियाँ अनंत, परिमल – घूँघट ढँक रहा दन्त, कंप-कंप चुप-चुप कर रही बात. कोमल कुसुमों की मधुर रात ! नक्षत्र-कुमुद की अलस… Continue reading कोमल कुसुमों की मधुर रात / जयशंकर प्रसाद

अब जागो जीवन के प्रभात / जयशंकर प्रसाद

अब जागो जीवन के प्रभात ! वसुधा पर ओस बने बिखरे हिमकन आँसू जो क्षोभ भरे उषा बटोरती अरुण गात ! अब जागो जीवन के प्रभात ! तम नयनों की ताराएँ सब- मुद रही किरण दल में हैं अब, चल रहा सुखद यह मलय वात ! अब जागो जीवन के प्रभात ! रजनी की लाज… Continue reading अब जागो जीवन के प्रभात / जयशंकर प्रसाद