निज अलकों के अंधकार में / जयशंकर प्रसाद

निज अलकों के अंधकार में तुम कैसे छिप जाओगे?
इतना सजग कुतूहल! ठहरो,यह न कभी बन पाओगे !
आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप-चाँप कर उन्हें नहीं-
दुख दो इतना, अरे अरुणिमा उषा-सी वह उधर बही.
वसुधा चरण चिह्न सी बनकर यहीं पड़ी रह जावेगी .
प्राची रज कुंकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी.
देख न लूँ, इतनी ही तो है इच्छा?लो सिर झुका हुआ .
कोमल किरन-उंगलियों से ढँक दोगे यह दृग खुला हुआ .
फिर कह दोगे; पहचानो तो मैं हूँ कौन बताओ तो .
किन्तु उनही अधरों से, पहले उनकी हँसी दबाओ तो .
सिहर भरे निज शिथिल मृदुल अंचल को अधरों से पकड़ो.
बेला बीत चली है चंचल बाहु-लता है आ जकड़ो .

तुम हों कौन और मैं क्या हूँ
इसमें क्या है धरा, सुनो,
मानस जलधि रहे चिर चुम्बित-
मेरे क्षितिज! उदार बनो .

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