ललद्यद के नाम-3 / अग्निशेखर

हम पर भी कसी गई फब्तियाँ समय की टेढ़ी आँख ने चुना हमें ही अपनी ही सड़कों पर हमारे पीछे भी लगा वही आदमी जिससे बचने के लिए तुमने मारी थी छलांग तन्दूर में और तुम तो निकलीं थीं स्वर्ग के वस्त्र पहनकर हम- तुम्हारी बेटियाँ झुलस रही हैं इस अलाव में

ललद्यद के नाम-2 / अग्निशेखर

तुम्हारे पास तो भी कच्चा धागा है जिससे तुम खींच रही हो समुद्र में नाव मेरे पास कुछ भी तो नहीं है गरमी के इस कहर में नंगे तलुवों से मापते हुए अन्तहीन रेत सूरज को रोकने की कोशिश है माथे पर धरा मेरे बेख़ून हाथ तुम पार तरने के लिए कर रही हो अपने… Continue reading ललद्यद के नाम-2 / अग्निशेखर

ललद्यद के नाम-1 / अग्निशेखर

तुमने समय के तन्दूर में मारी छलांग और उदित हुई तन ढककर स्वर्ग के वस्त्रों में बिखेरते हुए बर्फ़-सा प्रकाश कहा तुमने, ‘कौन मरेगा और मारेंगे किसको’ तन्दूर में तुम्हारे कूदने और उसमें से निकलने के बीच की वेला में शताब्दियों के बाद आज फिर तप रही है तुम्हारी सन्तान विकल्प की आग में छलांग… Continue reading ललद्यद के नाम-1 / अग्निशेखर

काजल का टीका / अग्निशेखर

नवजात बच्चे ने टैंट से बाहर हाथ निकालकर मुट्ठी में भींच लिया सूरज और झुलस गईं उसकी किलकारियाँ उसने टैंट के अन्दर घुस आए बादलों को निचोड़ा और बह गया उसका बचपन घुटनों चलते उसने टैंट की एक रस्सी पकड़ी और हो गया आश्वस्त मुट्ठी में देखकर साँप बच्चा हो रहा है बड़ा उसके माथे… Continue reading काजल का टीका / अग्निशेखर

अयोध्या / अग्निशेखर

जीवित हो रहे हैं मुर्दे अयोध्या का जाप करने वालों की खुल रही हैं आँखें चुकाया नहीं जा सकता है मुर्दों का ऋण अतीत खुजा रहा है पाँखें धर्म सिर पर नहीं छतों पर चढ़कर अब बोलता है नगर में प्रतिष्ठित हुई हैं ईंटें देवताओं की तरह पूजित मरी हुई ईंटें इतिहास का वितरित हुआ… Continue reading अयोध्या / अग्निशेखर

कैम्प में चिड़ियाँ / अग्निशेखर

कैम्प में चिड़ियाँ / अग्निशेखर मुखपृष्ठ»रचनाकारों की सूची»अग्निशेखर»संग्रह: मुझसे छीन ली गई मेरी नदी / इन दिनों मेरी बिटिया निहारती है कैम्प में चिड़ियों को सुनती है धूप में उनकी बातें और देर तक रहती है गुम सामने-सामने उड़ जाती हैं टैंट की रस्सियों से एक साथ बीसियों चिड़ियाँ सूनी हो जाती है मेरी बिटिया… Continue reading कैम्प में चिड़ियाँ / अग्निशेखर

अलग-थलग / अग्निशेखर

एक-एक कर जला दिए गए हैं पुल अरसा हो गया हमें आर-पार बँटे हुए बाहर-भीतर हमारे सामने नदी में गिरकर डूब गए है कुछ लोग नदी का क्या बिगड़ता है पुलों के होने न होने से हम ही पड़ गए हैं अलग-थलग सदियों दूर आमने-सामने

अभिशाप / अग्निशेखर

हमें मार नहीं सका पूरी तरह कोई भी शस्त्र उनका न जला ही सकी हमें कोई आग कोई भी सैलाब डुबो नहीं सका हमें पूरी तरह हमें उड़ा नहीं सकी हवा सूखे पत्तों की तरह हम मर गए छटपटाती आत्मा की अमरता के अभिशाप से यहाँ

अस्थियाँ / अग्निशेखर

ओ पुरातत्त्ववेत्ता भविष्य, जीवित हो उठेंगी तुम्हारे सामने इन जगहों पर हमारी निष्पाप अस्थियाँ कहेंगी तुमसे बहाओ हमें कश्मीर ले जाकर वितस्ता में उस वक़्त खुल जाएंगी तुम्हारी आँखें जैसे खुलते हैं गूढ़ शब्दों के अर्थ कभी अपने आप इन जगहों पर कुछ मायूस घास उगी होगी एक दूर छूटी याद में सरोबार

लू-2 / अग्निशेखर

इस धूप में पगला गई है मेरी माँ झर गए हैं उसके पत्ते उसकी स्मृतियाँ रहती है दिन भर निर्वस्त्र हो गई है मौन… वेदनाओं से मुक्त किसी पोखर-सी उदासीन लू चल रही है और डाक्टर लिखते हैं एक ही उपचार चिनार की हवा ! क्या करूँ, माँ ! मेरे बस में नहीं है यह… Continue reading लू-2 / अग्निशेखर