स्मृति लोप / अग्निशेखर

तरह-तरह से आ रही थी मृत्यु ख़त्म हो रही थीं चीज़ें गायब हो रही थीं स्मृतियाँ पेड़ों से झर रहे थे नदी में पत्ते और हम धो रहे थे हाथ मरते जा रहे थे हमारे पूर्वज दूषित हो रही थीं भाषाएँ हमारे सम्वाद प्रतिरोध उतर चुके थे जैसे दिमाग़ से हम डूब रहे थे तुच्छताओं… Continue reading स्मृति लोप / अग्निशेखर

कवि और खजुराहो / अग्निशेखर

लहकती सरसों और आम्र-मंजरियों से होकर हमने मोटरबाईक पर दौड़ते छोड़ दिए पीछे गाय-बकरियों को चराते लोग खेत काटतीं पसीना पोंछतीं स्त्रियाँ पलाश की दहकती झाड़ियों और बासों के झुरमुट से होकर हम आम के बौर सूँघते पहुँचे खजुराहो हम जिन्हें रास्ते भर छोड़ आए थे पीछे रोज़मर्रा की दुनिया में निमग्न वे हमसे पहले… Continue reading कवि और खजुराहो / अग्निशेखर

कांगड़ी / अग्निशेखर

जाड़ा आते ही वह उपेक्षिता पत्नी सी याद आती है अरसे के बाद हम घर के कबाड़ से उसे मुस्कान के साथ निकाल लाते हैं कांगड़ी उस समय अपना शाप मोचन हुआ समझती है उस की तीलियों से बुनी देह की झुर्रियों में समय की पड़ी धूल हम फूँक कर उड़ाते हैं ढीली तीलियों में… Continue reading कांगड़ी / अग्निशेखर

तस्लीमा नसरीन : पांच / अग्निशेखर

पूछने कि हम्मत भी नहीं होती अब कहाँ हो कैसी हो क्या सुनी जा सकती है फोन पर तुम्हारी आवाज़ क्या पूछने पर किसी से पता चल सकता है तुम्हारा ठौर-ठिकाना मै भेजता पुराने दिनों कि तरह कबूतर के पंजे से बंधी एक चिट्ठी कहने की हिम्मत नही होती दया करो खत खटटर खटटर चल… Continue reading तस्लीमा नसरीन : पांच / अग्निशेखर

तस्लीमा नसरीन : चार / अग्निशेखर

जैसे हम कर चुके हों जीते जी अपना क्रिया-कर्म और अब मृत्युंजय नागरिक हैं जैसे हम आए हों कुछ दिनों के लिए अपने ही देश में सैलानियाँ कि तरह और हमें किसी से क्या लेना देना जैसे हमने युद्ध में डाल दिए हों हथियार और अब हो जो हो निर्विरोध तुम भी नहीं जानती थीं… Continue reading तस्लीमा नसरीन : चार / अग्निशेखर

तस्लीमा नसरीन : तीन / अग्निशेखर

परदे के पीछे कोई कर रहा तय हमारा होना या न होना परदे के पीछे लिखी जा रही धमकियाँ सजाये जा रहे बम परदे के पीछे बे-पर्दा हैं लोग जानते हैं हम सभ्यता इसी में मौन रहें हम

तस्लीमा नसरीन : दो / अग्निशेखर

उठाए उसने अभिव्यक्ति के खतरे उठाया हमने सिर पर आकाश उधेडी उसने सीवन सी लिए हमने होठ उसने कहा लज्जा ! हमने कहा – खास नहीं उस पर मंडराए बादल हमने खोलीं छतरियां उसने मांगी शरण हमने दी काल-कोठरी वह बुदबुदाती रही कोलकाता कोलकाता फुटनोट चली गई हमारे देश से बाला तली हमारे देश से

तस्लीमा नसरीन : एक / अग्निशेखर

तुमने क्यों सुनी आत्मा की चीत्कार तुम्हे छोड़ना नहीं पड़ता रगों में बहता अपना सुनहला देश यहाँ कितने लोगो की आई लाज अपनी ख़ामोशी पर मुझे नहीं मिला कोई भी दोस्त जिसने तुम्हारे आत्मघाती प्रेम पर की हो कोई बात मै हूँ स्वयं भी जलावतन और लज्जित भी कि तुम्हारे लिए कर नहीं सका मै… Continue reading तस्लीमा नसरीन : एक / अग्निशेखर

भूलने के विरुद्ध / अग्निशेखर

कहा तुमने यों तो साफ़ थीं दीवारें अलबत्ता दो लाचार हाथों के फिसले हुए निशान थे नीचे ज़मीन तक सरक आये कोई नहीं था वहाँ दीवार के सामने सिर्फ थी गोली चलने की अदीख घटना और थी खड़ी भूल जाने के विरुद्ध चुप दीवार कहा तुमने यहीं से शुरू होती है तुम्हारी कविता

सौतेले दिनों की कविता / अग्निशेखर

मेरा दुःख उन्हें असुविधा में दाल देता है मुझे नहीं आना चाहिए था इसे साथ लेकर वे हो जाते हैं निरुत्तर और यह उनके लिए कितने बड़े दुःख की बात है उनके यहाँ दुःख था एक चुने हुए मुद्दे की तरह मुश्किल से हाथ आया हुआ ये उस पर रात दिन लिख रहे थे कवितायेँ… Continue reading सौतेले दिनों की कविता / अग्निशेखर