ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है / हैदर अली ‘आतिश’

ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है ज़मीं याँ की चहारूम आस्माँ है ख़ुदा पिन्हाँ है आलम आश्कारा निहाँ है गंज वीराना अयाँ है तकल्लुफ़ से बरी है हुस्न-ए-ज़ाती क़बा-ए-गुल में गुल-बूटा कहाँ है पसीजेगा कभी तो दिल किसी का हमेशा अपनी आहों का धुआँ है बरंग-ए-बू हूँ गुलशन में मैं बुलबुल बग़ल ग़ुंचे के मेरा… Continue reading ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है / हैदर अली ‘आतिश’

वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है / हैदर अली ‘आतिश’

वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है तिरी आँखों की बीमारी जो आगे थी सो अब भी है वही नश-ओ-नुमा-ए-सब्ज़ा है गोर-ए-गरीबाँ पर हवा-ए-चर्ख़ ज़ंगारी जो आगे थी सो अब भी है तअल्लुक है वही ता हाल इन जुल्फों के सौदे से सलासिल की गिरफ़्तारी जो आगे थी सो अब भी… Continue reading वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है / हैदर अली ‘आतिश’

शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था / हैदर अली ‘आतिश’

शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था बग़ल में सनम था ख़ुदा मेहरबाँ था मुबाकर शब-ए-कद्र से भी वो शब थी सहर तक मह ओ मुशतरी का क़िराँ था वो शब थी कि थी रौशनी जिस में दिन की ज़मीं पर से इक नूर तो आस्माँ था निकाले थे दो चाँद उस ने मुक़ाबिल वो शब… Continue reading शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था / हैदर अली ‘आतिश’

ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए / हैदर अली ‘आतिश’

ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए वर्ना कोई ऩकाब नहीं यार के लिए नूर-ए-तजल्ली है तिरे रूख़्सार के लिए आँखें मिरी कलीम हैं दीदार के लिए कौन अपना है ये सुब्हा-ओ-जुन्नार के लिए दो फंदे हैं ये काफ़िर ओ दीं-दार के लिए दो आँखें चेहरे पर नहीं तेरे फ़कीर के दो ठेकरे हैं भीक… Continue reading ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए / हैदर अली ‘आतिश’

लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़गान-ए-तर सँभाले / हैदर अली ‘आतिश’

लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़गान-ए-तर सँभाले ये शाख़ वो नहीं जो बार-ए-समर सँभाले दीवाना हो के कोई फाड़ा करे गिरेबाँ मुमकिन नहीं कि दामन वो बे-ख़बर सँभाले तलवार खींच कर वो ख़ूँ-ख़्वार है ये कहता मुँह पर जो खाते डरता हो वो सिपर सँभाले तकिए में आदमी को लाज़िम कफ़न है रखना बैठा रहे मुसाफिर रख़्त-ए-सफर… Continue reading लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़गान-ए-तर सँभाले / हैदर अली ‘आतिश’

क्या क्या न रंग तेरे तलब-गार ला चुके / हैदर अली ‘आतिश’

क्या क्या न रंग तेरे तलब-गार ला चुके मस्तों को जोश सूफ़ियों को हाल आ चुके हस्ती को मिस्ल-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा मिटा चुके आशिक़ नक़ाब-ए-शाहिद-ए-मक़सूद उठा चुके काबे से दैर दैर से काबे को जा चुके क्या क्या न इस दो-राहे में हम फेर खा चुके गुस्ताख़ हाथ तौके़-ए-कमर यार के हुए हद्द-ए-अदब से पाँव को आगे… Continue reading क्या क्या न रंग तेरे तलब-गार ला चुके / हैदर अली ‘आतिश’

आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था / हैदर अली ‘आतिश’

आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था चेहरा-ए-शाहिद-ए-मक़सूद अयाँ है कि जो था इश्क़-ए-गुल में वही बुलबुल का फ़ुगाँ है कि जो था परतव-ए-मह से वही हाल-ए-कताँ है कि जो था आलम-ए-हुस्न ख़ुदा-दाद-ए-बुताँ है कि जो था नाज़ ओ अंदाज़ बला-ए-दिल-ओ-जाँ है कि जो था राह में तेरी शब ओ रोज़ बसर करता हूँ वही मील… Continue reading आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था / हैदर अली ‘आतिश’

सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या / हैदर अली ‘आतिश’

सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या कहती है तुझ को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा गा़एबाना क्या क्या क्या उलझता है तिरी ज़ुल्फों के तार से बख़िया-तलब है सीना-ए-सद-चाक-शाना क्या ज़ेर-ए-जमीं से आता है जो गुल सो ज़र-ब-कफ़ क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया ख़जाना क्या उड़ता है शौक़-ए-राहत-ए-मंज़िल से अस्प-ए-उम्र महमेज़ कहते हैंगे किसे ताज़ियाना क्या… Continue reading सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या / हैदर अली ‘आतिश’

यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया / हैदर अली ‘आतिश’

यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया रात भर ताला-ए-बेदार ने सोने न दिया ख़ाक पर संग-ए-दर-ए-यार ने सोने न दिया धूप में साया-ए-दीवार ने सोने न दिया शाम से वस्ल की शब आँख न झपकी ता सुब्ह शादी-ए-दौलत-ए-दीदार ने सोने न दिया एक शब बुलबुल-ए-बे-ताब के जागे न नसीब पहलु-ए-गुल में… Continue reading यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया / हैदर अली ‘आतिश’

ہمیشہ جوش گریہ سے رہا پانی میں اے آتش

Poet: Aatish Haider Ali ہمیشہ جوش گریہ سے رہا پانی میں اے آتش کبھی تازہ نہ لیکن اپنے دل کا یہ کنول پایا مری آنکھوں کے آگے آئے گا کیا جوش میں دریا ہمیشہ صورت ساحل ہے یاں آغوش میں دریا وہ حد کم ظرف ہیں جو ایک ساغر میں بہکتے ہیں نہیں قطہ بھی… Continue reading ہمیشہ جوش گریہ سے رہا پانی میں اے آتش