ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए / हैदर अली ‘आतिश’

ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए
वर्ना कोई ऩकाब नहीं यार के लिए

नूर-ए-तजल्ली है तिरे रूख़्सार के लिए
आँखें मिरी कलीम हैं दीदार के लिए

कौन अपना है ये सुब्हा-ओ-जुन्नार के लिए
दो फंदे हैं ये काफ़िर ओ दीं-दार के लिए

दो आँखें चेहरे पर नहीं तेरे फ़कीर के
दो ठेकरे हैं भीक के दीदार के लिए

सुर्मा लगाया कीजिएर आँखों में मेहरबाँ
इक्सीर ये सुफूफ है बीमार के लिए

हल्के में जुल्फ-ए-यार की मोती पिराइए
ददाँ ज़रूर है दहन-ए-मार के लिए

गुफ़्त-ओ-शुनीद में हों बसर दिन बहार के
गुल के लिए है गोश ज़बाँ ख़ार के लिए

आया जो देखने तिरे हुस्न ओ जमाल को
पकड़ा गया वो इश्क़ के बेगार के लिए

हाजत नहीं बनाओ की ऐ नाज़नीं तुझे
ज़ेवर है सादगी तिर रूख़्सार के लिए

गुल-हा-ए-जख़्म से हों शहादत-तलब निहाल
तौफ़ीक़-ए-ख़ैर हो तिरी तलवार के लिए

एहसाँ जो इब्तिदा से है ‘आतिश’ वही है आज
कुछ इंतिहा नहीं करम-ए-यार के लिए

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