उसे क्या कहूँ / दुष्यंत कुमार

किन्तु जो तिमिर-पान औ’ ज्योति-दान करता करता बह गया उसे क्या कहूँ कि वह सस्पन्द नहीं था ? और जो मन की मूक कराह ज़ख़्म की आह कठिन निर्वाह व्यक्त करता करता रह गया उसे क्या कहूँ गीत का छन्द नहीं था ? पगों कि संज्ञा में है गति का दृढ़ आभास, किन्तु जो कभी… Continue reading उसे क्या कहूँ / दुष्यंत कुमार

तीन दोस्त / दुष्यंत कुमार

सब बियाबान, सुनसान अँधेरी राहों में खंदकों खाइयों में रेगिस्तानों में, चीख कराहों में उजड़ी गलियों में थकी हुई सड़कों में, टूटी बाहों में हर गिर जाने की जगह बिखर जाने की आशंकाओं में लोहे की सख्त शिलाओं से दृढ़ औ’ गतिमय हम तीन दोस्त रोशनी जगाते हुए अँधेरी राहों पर संगीत बिछाते हुए उदास… Continue reading तीन दोस्त / दुष्यंत कुमार

सत्य बतलाना / दुष्यंत कुमार

सत्य बतलाना तुमने उन्हें क्यों नहीं रोका? क्यों नहीं बताई राह? क्या उनका किसी देशद्रोही से वादा था? क्या उनकी आँखों में घृणा का इरादा था? क्या उनके माथे पर द्वेष-भाव ज्यादा था? क्या उनमें कोई ऐसा था जो कायर हो? या उनके फटे वस्त्र तुमको भरमा गए? पाँवों की बिवाई से तुम धोखा खा… Continue reading सत्य बतलाना / दुष्यंत कुमार

अनुभव-दान / दुष्यंत कुमार

“खँडहरों सी भावशून्य आँखें नभ से किसी नियंता की बाट जोहती हैं। बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं; टूटी हुई जिंदगी आँगन में दीवार से पीठ लगाए खड़ी है; कटी हुई पतंगों से हम सब छत की मुँडेरों पर पड़े हैं।” बस! बस!! बहुत सुन लिया है। नया नहीं है ये सब मैंने भी किया… Continue reading अनुभव-दान / दुष्यंत कुमार

आँधी और आग / दुष्यंत कुमार

अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।

समय / दुष्यंत कुमार

नहीं! अभी रहने दो! अभी यह पुकार मत उठाओ! नगर ऐसे नहीं हैं शून्य! शब्दहीन! भूला भटका कोई स्वर अब भी उठता है–आता है! निस्वन हवा में तैर जाता है! रोशनी भी है कहीं? मद्धिम सी लौ अभी बुझी नहीं, नभ में एक तारा टिमटिमाता है! अभी और सब्र करो! जल नहीं, रहने दो! अभी… Continue reading समय / दुष्यंत कुमार

सूचना / दुष्यंत कुमार

कल माँ ने यह कहा –- कि उसकी शादी तय हो गई कहीं पर, मैं मुसकाया वहाँ मौन रो दिया किन्तु कमरे में आकर जैसे दो दुनिया हों मुझको मेरा कमरा औ’ मेरा घर ।

प्रेरणा के नाम / दुष्यंत कुमार

तुम्हें याद होगा प्रिय जब तुमने आँख का इशारा किया था तब मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं, ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को, शीष पर बनाया था एक नया आसमान, जल के बहावों को मनचाही गति दी थी…., किंतु–वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था– मेरा तो नहीं था सिर्फ़! जैसे बिजली का स्विच दबे… Continue reading प्रेरणा के नाम / दुष्यंत कुमार

संधिस्थल / दुष्यंत कुमार

साँझ। दो दिशाओं से दो गाड़ियाँ आईं रुकीं। ‘यह कौन देखा कुछ झिझक संकोच से पर मौन। ‘तुमुल कोलाहल भरा यह संधिस्थल धन्य!’ दोनों एक दूजे के हृदय की धड़कनों को सुन रहे थे शांत, जैसे ऐंद्रजालिक-चेतना के लोक में उद्भ्रान्त। चल पड़ी फिर ट्रेन। मुख पर सद्यनिर्मित झुर्रियाँ स्पष्ट सी हो गईं दोनों और… Continue reading संधिस्थल / दुष्यंत कुमार