फिर कर लेने दो प्यार प्रिये / दुष्यंत कुमार

अब अंतर में अवसाद नहीं चापल्य नहीं उन्माद नहीं सूना-सूना सा जीवन है कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं तव स्वागत हित हिलता रहता अंतरवीणा का तार प्रिये .. इच्छाएँ मुझको लूट चुकी आशाएं मुझसे छूट चुकी सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ मेरे हाथों से टूट चुकी खो बैठा अपने हाथों ही मैं अपना कोष अपार प्रिये… Continue reading फिर कर लेने दो प्यार प्रिये / दुष्यंत कुमार

तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा / दुष्यंत कुमार

तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा—भरा लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल मैं जिस… Continue reading तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा / दुष्यंत कुमार

चीथड़े में हिन्दुस्तान / दुष्यंत कुमार

एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है। ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है। एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है। मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,… Continue reading चीथड़े में हिन्दुस्तान / दुष्यंत कुमार

जाने किस—किसका ख़्याल आया है / दुष्यंत कुमार

जाने किस—किसका ख़्याल आया है इस समंदर में उबाल आया है एक बच्चा था हवा का झोंका साफ़ पानी को खंगाल आया है एक ढेला तो वहीं अटका था एक तू और उछाल आया है कल तो निकला था बहुत सज—धज के आज लौटा तो निढाल आया है ये नज़र है कि कोई मौसम है… Continue reading जाने किस—किसका ख़्याल आया है / दुष्यंत कुमार

विदा के बाद प्रतीक्षा / दुष्यंत कुमार

परदे हटाकर करीने से रोशनदान खोलकर कमरे का फर्नीचर सजाकर और स्वागत के शब्दों को तोलकर टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ और देखता रहता हूँ मैं। सड़कों पर धूप चिलचिलाती है चिड़िया तक दिखायी नही देती पिघले तारकोल में हवा तक चिपक जाती है बहती बहती, किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से… Continue reading विदा के बाद प्रतीक्षा / दुष्यंत कुमार

बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं / दुष्यंत कुमार

बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं, और नदियों के किनारे घर बने हैं । चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर, इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं । इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं, जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं । आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन, इस समय तो पाँव कीचड़ में सने… Continue reading बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं / दुष्यंत कुमार

ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए / दुष्यंत कुमार

ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए पर पाँवों किसी तरह से राहों पे तो आए हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं… Continue reading ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए / दुष्यंत कुमार

मत कहो आकाश में कोहरा घना है / दुष्यंत कुमार

मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह का, क्या कारोगे सूर्य का क्या देखना है। हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्था, शौक से डूबे जिसे भी डूबना है। दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं है, आजकल नेपथ्य में सम्भावना है.

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये ख़ुदा नहीं न… Continue reading कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है / दुष्यंत कुमार

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर झोले में उसके पास कोई संविधान है उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप वो आदमी… Continue reading वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है / दुष्यंत कुमार