माया / दुष्यंत कुमार

दूध के कटोरे सा चाँद उग आया। बालकों सरीखा यह मन ललचाया। (आह री माया! इतना कहाँ है मेरे पास सरमाया? जीवन गँवाया!)

इनसे मिलिए / दुष्यंत कुमार

पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़ जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़ गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन कटि, रीतिकाल की सुधियों… Continue reading इनसे मिलिए / दुष्यंत कुमार

पर जाने क्यों / दुष्यंत कुमार

माना इस बस्ती में धुआँ है खाई है, खंदक है, कुआँ है; पर जाने क्यों? कभी कभी धुआँ पीने को भी मन करता है; खाई-खंदकों में जीने को भी मन करता है; यह भी मन करता है— यहीं कहीं झर जाएँ, यहीं किसी भूखे को देह-दान कर जाएँ यहीं किसी नंगे को खाल खींच कर… Continue reading पर जाने क्यों / दुष्यंत कुमार

कागज़ की डोंगियाँ / दुष्यंत कुमार

यह समंदर है। यहाँ जल है बहुत गहरा। यहाँ हर एक का दम फूल आता है। यहाँ पर तैरने की चेष्टा भी व्यर्थ लगती है। हम जो स्वयं को तैराक कहते हैं, किनारों की परिधि से कब गए आगे? इसी इतिवृत्त में हम घूमते हैं, चूमते हैं पर कभी क्या छोर तट का? (किंतु यह… Continue reading कागज़ की डोंगियाँ / दुष्यंत कुमार

क्षमा / दुष्यंत कुमार

“आह! मेरा पाप-प्यासा तन किसी अनजान, अनचाहे, अकथ-से बंधनों में बँध गया चुपचाप मेरा प्यार पावन हो गया कितना अपावन आज! आह! मन की ग्लानि का यह धूम्र मेरी घुट रही आवाज़! कैसे पी सका विष से भरे वे घूँट…? जँगली फूल सी सुकुमार औ’ निष्पाप मेरी आत्मा पर बोझ बढ़ता जा रहा है प्राण!… Continue reading क्षमा / दुष्यंत कुमार

सत्य / दुष्यंत कुमार

दूर तक फैली हुई है जिंदगी की राह ये नहीं तो और कोई वृक्ष देगा छाँह गुलमुहर, इस साल खिल पाए नहीं तो क्या! सत्य, यदि तुम मुझे मिल पाए नहीं तो क्या!

पुनर्स्मरण / दुष्यंत कुमार

आह-सी धूल उड़ रही है आज चाह-सा काफ़िला खड़ा है कहीं और सामान सारा बेतरतीब दर्द-सा बिन-बँधे पड़ा है कहीं कष्ट-सा कुछ अटक गया होगा मन-सा राहें भटक गया होगा आज तारों तले बिचारे को काटनी ही पड़ेगी सारी रात x x x बात पर आ गई है बात स्वप्न थे तेरे प्यार के सब… Continue reading पुनर्स्मरण / दुष्यंत कुमार

एक मनस्थिति का चित्र / दुष्यंत कुमार

मानसरोवर की गहराइयों में बैठे हंसों ने पाँखें दीं खोल शांत, मूक अंबर में हलचल मच गई गूँज उठे त्रस्त विविध-बोल शीष टिका हाथों पर आँख झपीं, शंका से बोधहीन हृदय उठा डोल।

दो पोज़ / दुष्यंत कुमार

सद्यस्नात[1] तुम जब आती हो मुख कुन्तलों[2] से ढँका रहता है बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब राहू से चाँद ग्रसा रहता है । पर जब तुम केश झटक देती हो अनायास तारों-सी बूँदें बिखर जाती हैं आसपास मुक्त हो जाता है चाँद तब बहुत भला लगता है ।   शब्दार्थ: इसी समय नहाई… Continue reading दो पोज़ / दुष्यंत कुमार

आत्म-वर्जना / दुष्यंत कुमार

अब हम इस पथ पर कभी नहीं आएँगे। तुम अपने घर के पीछे जिन ऊँची ऊँची दीवारों के नीचे मिलती थीं, उनके साए अब तक मुझ पर मँडलाए, अब कभी न मँडलाएँगें। दुख ने झिझक खोल दी वे बिनबोले अक्षर जो मन की अभिलाषाओं को रूप न देकर अधरों में ही घुट जाते थे अब… Continue reading आत्म-वर्जना / दुष्यंत कुमार