परांगमुखी प्रिया से / दुष्यंत कुमार

ओ परांगमुखी प्रिया! कोरे कागज़ों को रँगने बैठा हूँ असत्य क्यों कहूँगा तुमने कुछ जादू कर दिया। खुद से लड़ते खुद को तोड़ते हुए दिन बीता करते हैं, बदली हैं आकृतियाँ: मेरे अस्तित्व की इकाई को तुमने ही एक से अनेक कर दिया! उँगलियों में मोड़ कर लपेटे हुए कुंतलों-से मेरे विश्वासों की रूपरेखा यही… Continue reading परांगमुखी प्रिया से / दुष्यंत कुमार

एक स्थिति / दुष्यंत कुमार

हर घर में कानाफूसी औ’ षडयंत्र, हर महफ़िल के स्वर में विद्रोही मंत्र, क्या नारी क्या नर क्या भू क्या अंबर माँग रहे हैं जीने का वरदान, सब बच्चे, सब निर्बल, सब बलवान, सब जीवन सब प्राण, सुबह दोपहर शाम। ‘अब क्या होगा राम?’ कुछ नहीं समझ में आते ऐसे राज़, जिसके देखो अनजाने हैं… Continue reading एक स्थिति / दुष्यंत कुमार

कुंठा / दुष्यंत कुमार

मेरी कुंठा रेशम के कीड़ों-सी ताने-बाने बुनती, तड़प तड़पकर बाहर आने को सिर धुनती, स्वर से शब्दों से भावों से औ’ वीणा से कहती-सुनती, गर्भवती है मेरी कुंठा –- कुँवारी कुंती! बाहर आने दूँ तो लोक-लाज मर्यादा भीतर रहने दूँ तो घुटन, सहन से ज़्यादा, मेरा यह व्यक्तित्व सिमटने पर आमादा।

मापदण्ड बदलो / दुष्यंत कुमार

मेरी प्रगति या अगति का यह मापदण्ड बदलो तुम, जुए के पत्ते-सा मैं अभी अनिश्चित हूँ । मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं, कोपलें उग रही हैं, पत्तियाँ झड़ रही हैं, मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ, लड़ता हुआ नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।… Continue reading मापदण्ड बदलो / दुष्यंत कुमार

तुलना / दुष्यंत कुमार

गडरिए कितने सुखी हैं । न वे ऊँचे दावे करते हैं न उनको ले कर एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं। जबकि जनता की सेवा करने के भूखे सारे दल भेडियों से टूटते हैं । ऐसी-ऐसी बातें और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं जैसे कुछ नहीं हुआ है और सब कुछ हो जाएगा ।… Continue reading तुलना / दुष्यंत कुमार