संधिस्थल / दुष्यंत कुमार

साँझ।
दो दिशाओं से
दो गाड़ियाँ आईं
रुकीं।

‘यह कौन
देखा कुछ झिझक संकोच से
पर मौन।

‘तुमुल कोलाहल भरा यह संधिस्थल धन्य!’
दोनों एक दूजे के हृदय की धड़कनों को
सुन रहे थे शांत,
जैसे ऐंद्रजालिक-चेतना के लोक में
उद्भ्रान्त।

चल पड़ी फिर ट्रेन।
मुख पर सद्यनिर्मित झुर्रियाँ
स्पष्ट सी हो गईं दोनों और दुख की।
फड़फड़ाते रह गए स्वर पीत अधरों में।
व्यग्र उत्कंठा सभी कुछ जानने की,
पूछने की घुट गई।
आँसू भरी नयनों की अकृतिम कोर,
दोनों ओर:
देखा दूर तक चुपचाप, रोके साँस,
लेकिन आ गया व्यवधान बन
सहसा क्षितिज का क्षोर–
मानव-शक्ति के सीमान का आभास,
और दिन बुझ गया।

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