परिणति / दुष्यंत कुमार

आत्मसिद्ध थीं तुम कभी! स्वयं में समोने को भविष्यत् के स्वप्न नयनों से वेगवान सुषमा उमड़ती थी, आश्वस्त अंतस की प्रतिज्ञा की तरह तन से स्निग्ध मांसलता फूट पड़ती थी जिसमें रस था: पर अब तो बच्चों ने जैसे चाकू से खोद खोद कर विकृत कर दिया हो किसी आम के तने को गोंद पाने… Continue reading परिणति / दुष्यंत कुमार

दिन निकलने से पहले / दुष्यंत कुमार

“मनुष्यों जैसी पक्षियों की चीखें और कराहें गूँज रही हैं, टीन के कनस्तरों की बस्ती में हृदय की शक्ल जैसी अँगीठियों से धुआँ निकलने लगा है, आटा पीसने की चक्कियाँ जनता के सम्मिलित नारों की सी आवाज़ में गड़गड़ाने लगी हैं, सुनो प्यारे! मेरा दिल बैठ रहा है!” “अपने को सँभालो मित्र! अभी ये कराहें… Continue reading दिन निकलने से पहले / दुष्यंत कुमार

मुक्तक / दुष्यंत कुमार

(१) सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं क़दम क़दम पे मुझे टोकता है दिल ऐसे गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं। (२) तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को खिली धूप में, खुली हवा में, गाने मुसकाने को तुम… Continue reading मुक्तक / दुष्यंत कुमार

दिग्विजय का अश्व / दुष्यंत कुमार

“—आह, ओ नादान बच्चो! दिग्विजय का अश्व है यह, गले में इसके बँधा है जो सुनहला-पत्र मत खोलो, छोड़ दो इसको। बिना-समझे, बिना-बूझे, पकड़ लाए मूँज की इन रस्सियों में बाँधकर क्यों जकड़ लाए? क्या करोगे? धनुर्धारी, भीम औ’ सहदेव या खुद धर्मराज नकुल वगैरा साज सेना अभी अपने गाँव में आ जाएँगे, महाभारत का… Continue reading दिग्विजय का अश्व / दुष्यंत कुमार

शब्दों की पुकार / दुष्यंत कुमार

एक बार फिर हारी हुई शब्द-सेना ने मेरी कविता को आवाज़ लगाई— “ओ माँ! हमें सँवारो। थके हुए हम बिखरे-बिखरे क्षीण हो गए, कई परत आ गईं धूल की, धुँधला सा अस्तित्व पड़ गया, संज्ञाएँ खो चुके…! लेकिन फिर भी अंश तुम्हारे ही हैं तुमसे पृथक कहाँ हैं? अलग-अलग अधरों में घुटते अलग-अलग हम क्या… Continue reading शब्दों की पुकार / दुष्यंत कुमार

मैं और मेरा दुख / दुष्यंत कुमार

दुख : किसी चिड़िया के अभी जन्मे बच्चे सा किंतु सुख : तमंचे की गोली जैसा मुझको लगा है। आप ही बताएँ कभी आप ने चलती हुई गोली को चलते, या अभी जन्मे बच्चे को उड़ते हुए देखा है?

ओ मेरी जिंदगी / दुष्यंत कुमार

मैं जो अनवरत तुम्हारा हाथ पकड़े स्त्री-परायण पति सा इस वन की पगडंडियों पर भूलता-भटकता आगे बढ़ता जा रहा हूँ, सो इसलिए नहीं कि मुझे दैवी चमत्कारों पर विश्वास है, या तुम्हारे बिना मैं अपूर्ण हूँ, बल्कि इसलिए कि मैं पुरुष हूँ और तुम चाहे परंपरा से बँधी मेरी पत्नी न हो, पर एक ऐसी… Continue reading ओ मेरी जिंदगी / दुष्यंत कुमार

धर्म / दुष्यंत कुमार

तेज़ी से एक दर्द मन में जागा मैंने पी लिया, छोटी सी एक ख़ुशी अधरों में आई मैंने उसको फैला दिया, मुझको सन्तोष हुआ और लगा –- हर छोटे को बड़ा करना धर्म है ।

कैद परिंदे का बयान / दुष्यंत कुमार

तुमको अचरज है–मैं जीवित हूँ! उनको अचरज है–मैं जीवित हूँ! मुझको अचरज है–मैं जीवित हूँ! लेकिन मैं इसीलिए जीवित नहीं हूँ– मुझे मृत्यु से दुराव था, यह जीवन जीने का चाव था, या कुछ मधु-स्मृतियाँ जीवन-मरण के हिंडोले पर संतुलन साधे रहीं, मिथ्या की कच्ची-सूती डोरियाँ साँसों को जीवन से बाँधे रहीं; नहीं– नहीं! ऐसा… Continue reading कैद परिंदे का बयान / दुष्यंत कुमार

अनुरक्ति / दुष्यंत कुमार

जब जब श्लथ मस्तक उठाऊँगा इसी विह्वलता से गाऊँगा। इस जन्म की सीमा-रेखा से लेकर बाल-रवि के दूसरे उदय तक हतप्रभ आँखों के इसी दायरे में खींच लाना तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा! सुख का होता स्खलन दुख का नहीं, अधर पुष्प होते होंगे— गंध-हीन, निष्प्रभाव, छूछे….खोखले….अश्रु नहीं; गेय मेरा रहेगा यही गर्व; युग-युगांतरों तक… Continue reading अनुरक्ति / दुष्यंत कुमार