दीवार / दुष्यंत कुमार

दीवार, दरारें पड़ती जाती हैं इसमें दीवार, दरारें बढ़ती जाती हैं इसमें तुम कितना प्लास्टर औ’ सीमेंट लगाओगे कब तक इंजीनियरों की दवा पिलाओगे गिरने वाला क्षण दो क्षण में गिर जाता है, दीवार भला कब तक रह पाएगी रक्षित यह पानी नभ से नहीं धरा से आता है।

अभिव्यक्ति का प्रश्न / दुष्यंत कुमार

प्रश्न अभिव्यक्ति का है, मित्र! किसी मर्मस्पर्शी शब्द से या क्रिया से, मेरे भावों, अभावों को भेदो प्रेरणा दो! यह जो नीला ज़हरीला घुँआ भीतर उठ रहा है, यह जो जैसे मेरी आत्मा का गला घुट रहा है, यह जो सद्य-जात शिशु सा कुछ छटपटा रहा है, यह क्या है? क्या है मित्र, मेरे भीतर… Continue reading अभिव्यक्ति का प्रश्न / दुष्यंत कुमार

स्वप्न और परिस्थितियाँ / दुष्यंत कुमार

सिगरेट के बादलों का घेरा बीच में जिसके वह स्वप्न चित्र मेरा— जिसमें उग रहा सवेरा साँस लेता है, छिन्न कर जाते हैं निर्मम हवाओं के झोंके; आह! है कोई माई का लाल? जो इन्हें रोके, सामने आकर सीना ठोंके।

मंत्र हूँ / दुष्यंत कुमार

मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं! एक बूँद आँसू में पढ़कर फेंको मुझको ऊसर मैदानों पर खेतों खलिहानों पर काली चट्टानों पर….। मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं आज अगर चुप हूँ धूल भरी बाँसुरी सरीखा स्वरहीन, मौन; तो मैं नहीं तुम ही हो उत्तरदायी इसके। तुमने ही मुझे कभी ध्यान से निहारा नहीं, छुआ… Continue reading मंत्र हूँ / दुष्यंत कुमार

यह क्यों / दुष्यंत कुमार

हर उभरी नस मलने का अभ्यास रुक रुककर चलने का अभ्यास छाया में थमने की आदत यह क्यों ? जब देखो दिल में एक जलन उल्टे उल्टे से चाल-चलन सिर से पाँवों तक क्षत-विक्षत यह क्यों ? जीवन के दर्शन पर दिन-रात पण्डित विद्वानों जैसी बात लेकिन मूर्खों जैसी हरकत यह क्यों ?

मोम का घोड़ा / दुष्यंत कुमार

मैने यह मोम का घोड़ा, बड़े जतन से जोड़ा, रक्त की बूँदों से पालकर सपनों में ढालकर बड़ा किया, फिर इसमें प्यास और स्पंदन गायन और क्रंदन सब कुछ भर दिया, औ’ जब विश्वास हो गया पूरा अपने सृजन पर, तब इसे लाकर आँगन में खड़ा किया! माँ ने देखा—बिगड़ीं; बाबूजी गरम हुए; किंतु समय… Continue reading मोम का घोड़ा / दुष्यंत कुमार

जभी तो / दुष्यंत कुमार

नफ़रत औ’ भेद-भाव केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं रह गया है अब। मैंने महसूस किया है मेरे घर में ही बिजली का सुंदर औ’ भड़कदार लट्टू— कुरसी के टूटे हुए बेंत पर, खस्ता तिपाई पर, फटे हुए बिस्तर पर, छिन्न चारपाई पर, कुम्हलाए बच्चों पर, अधनंगी बीवी पर— रोज़ व्यंग्य करता है, जैसे वह कोई… Continue reading जभी तो / दुष्यंत कुमार

गीत तेरा / दुष्यंत कुमार

गीत तेरा मन कँपाता है। शक्ति मेरी आजमाता है। न गा यह गीत, जैसे सर्प की आँखें कि जिनका मौन सम्मोहन सभी को बाँध लेता है, कि तेरी तान जैसे एक जादू सी मुझे बेहोश करती है, कि तेरे शब्द जिनमें हूबहू तस्वीर मेरी ज़िंदगी की ही उतरती है; न गा यह ज़िंदगी मेरी न… Continue reading गीत तेरा / दुष्यंत कुमार

एक पत्र का अंश / दुष्यंत कुमार

मुझे लिखना वह नदी जो बही थी इस ओर! छिन्न करती चेतना के राख के स्तूप, क्या अब भी वहीं है? बह रही है? —या गई है सूख वह पाकर समय की धूप? प्राण! कौतूहल बड़ा है, मुझे लिखना, श्वाँस देकर खाद परती कड़ी धरती चीर वृक्ष जो हमने उगाया था नदी के तीर क्या… Continue reading एक पत्र का अंश / दुष्यंत कुमार

वासना का ज्वार / दुष्यंत कुमार

क्या भरोसा लहर कब आए? किनारे डूब जाएँ? तोड़कर सारे नियंत्रण इस अगम गतिशील जल की धार— कब डुबोदे क्षीण जर्जर यान? (मैं जिसे संयम बताता हूँ) आह! ये क्षण! ये चढ़े तूफ़ान के क्षण! क्षुद्र इस व्यक्तित्व को मथ डालने वाले नए निर्माण के क्षण! यही तो हैं— मैं कि जिनमें लुटा, खोया, खड़ा… Continue reading वासना का ज्वार / दुष्यंत कुमार