कैद परिंदे का बयान / दुष्यंत कुमार

तुमको अचरज है–मैं जीवित हूँ!
उनको अचरज है–मैं जीवित हूँ!
मुझको अचरज है–मैं जीवित हूँ!

लेकिन मैं इसीलिए जीवित नहीं हूँ–
मुझे मृत्यु से दुराव था,
यह जीवन जीने का चाव था,
या कुछ मधु-स्मृतियाँ जीवन-मरण के हिंडोले पर
संतुलन साधे रहीं,
मिथ्या की कच्ची-सूती डोरियाँ
साँसों को जीवन से बाँधे रहीं;
नहीं–
नहीं!
ऐसा नहीं!!

बल्कि मैं जिंदा हूँ
क्योंकि मैं पिंजड़े में क़ैद वह परिंदा हूँ–
जो कभी स्वतंत्र रहा है
जिसको सत्य के अतिरिक्त, और कुछ दिखा नहीं,
तोते की तरह जिसने
तनिक खिड़की खुलते ही
आँखें बचाकर, भाग जाना सीखा नहीं;
अब मैं जियूँगा
और यूँ ही जियूँगा,
मुझमें प्रेरणा नई या बल आए न आए,
शूलों की शय्या पर पड़ा पड़ा कसकूँ
एक पल को भी कल आए न आए,
नई सूचना का मौर बाँधे हुए
चेतना ये, होकर सफल आए न आए,
पर मैं जियूँगा नई फ़सल के लिए
कभी ये नई फ़सल आए न आए :

हाँ! जिस दिन पिंजड़े की
सलाखें मोड़ लूँगा मैं,
उस दिन सहर्ष
जीर्ण देह छोड़ दूँगा मैं!

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