दिग्विजय का अश्व / दुष्यंत कुमार

“—आह, ओ नादान बच्चो!
दिग्विजय का अश्व है यह,
गले में इसके बँधा है जो सुनहला-पत्र
मत खोलो,
छोड़ दो इसको।

बिना-समझे, बिना-बूझे, पकड़ लाए
मूँज की इन रस्सियों में बाँधकर
क्यों जकड़ लाए?
क्या करोगे?

धनुर्धारी, भीम औ’ सहदेव
या खुद धर्मराज नकुल वगैरा
साज सेना
अभी अपने गाँव में आ जाएँगे,
महाभारत का बनेगा केंद्र यह,
हाथियों से
और अश्वों के खुरों से,
धूल में मिल जाएँगे ये घर,
अनगिन लाल
ग्रास होंगे काल के,
मृत्यु खामोशी बिछा देगी,
भरी पूरी फ़सल सा यह गाँव
सब वीरान होगा।

आह! इसका करोगे क्या?
छोड़ दो!
बाग इसकी किसी अनजानी दिशा में मोड़ दो।
क्या नहीं मालूम तुमको
आप ही भगवान उनके सारथी हैं?”

“—नहीं, बापू, नहीं!
इसे कैसे छोड़ दें हम?
इसे कैसे छोड़ सकते हैं!!
हम कि जो ढोते रहे हैं ज़िंदगी का बोझ अब तक
पीठ पर इसकी चढ़ेंगे,
हवा खाएँगे,
गाड़ियों में इसे जोतेंगे,
लादकर बोरे उपज के
बेचने बाज़ार जाएँगे।

हम कि इसको नई ताज़ी घास देंगे
घूमने को हरा सब मैदान देंगे।
प्यार देंगे, मान देंगे;
हम कि इसको रोकने के लिए अपने प्राण देंगे।

अस्तबल में बँधा यह निर्वाक प्राणी!
उस ‘चमेली’ गाय के बछड़े सरीखा
आज बंधनहीन होकर
यहाँ कितना रम गया है!

यह कि जैसे यहीं जन्मा हो, पला हो।

आज हैं कटिबद्ध हम सब
फावड़े लाठी सँभाले।
कृष्ण, अर्जुन इधर आएँ
हम उन्हें आने न देंगे।
अश्व ले जाने न देंगे।”

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