किस को देखा है ये हुआ क्या है दिल धड़कता है माजरा क्या है इक मोहब्बत थी मिट चुकी या रब तेरी दुनिया में अब धरा क्या है दिल में लेता है चुटकियाँ कोई है इस दर्द की दवा क्या है हूरें नेकों में बँट चुकी होंगी बाग़-ए-रिज़वाँ में अब रखा क्या है उस के… Continue reading किस को देखा है ये हुआ क्या है / ‘अख्तर’ शीरानी
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झूम कर बदली उठी और छा गई / ‘अख्तर’ शीरानी
झूम कर बदली उठी और छा गई सारी दुनिया पर जवानी आ गई आह वो उस की निगाह-ए-मय-फ़रोश जब भी उट्ठी मस्तियाँ बरसा गई गेसू-ए-मुश्कीं में वो रू-ए-हसीं अब्र में बिजली सी इक लहरा गई आलम-ए-मस्ती की तौबा अल-अमाँ पारसाई नश्शा बन कर छा गई आह उस की बे-नियाज़ी की नज़र आरज़ू क्या फूल सी… Continue reading झूम कर बदली उठी और छा गई / ‘अख्तर’ शीरानी
ऐ दिल वो आशिक़ी के / ‘अख्तर’ शीरानी
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए वीराँ हैं सहन-ओ-बाग़ बहारों को क्या हुआ वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए है नज्द में सुकूत हवाओं को क्या हुआ लैलाएँ हैं ख़मोश दिवाने किधर गए उजड़े पड़े हैं दश्त ग़ज़ालों पे क्या बनी सूने हैं कोहसार… Continue reading ऐ दिल वो आशिक़ी के / ‘अख्तर’ शीरानी
शाम और मज़दूर-4 / अख़्तर यूसुफ़
शाम और मज़दूर बहुत पास-पास बैठे थे मिट्टी की डोंगी में गुड़ की चाय पीते थे महुआ के खेतों से पछुआ सीधी चली आती थी तेज़ कभी होती थी और कभी धीमी ख़ुशबू तेज़ महुआ की गुड़ की चाय जैसे कि बस भड़क-सी दारू दोनों को नशा था झोंपड़ी मज़दूर की महुआ की ख़ुशबू में… Continue reading शाम और मज़दूर-4 / अख़्तर यूसुफ़
शाम और मज़दूर-3 / अख़्तर यूसुफ़
मज़दूर शाम के साथ घर लौट रहा है गलियाँ जल्दी और जल्दी सुनसान हो रही हैं गाँव में कभी बिजली नहीं आती है अकसर गिर जाती है तेल मिट्टी का अब शहर में लोग पीते हैं अधर का पानी मरता जाता है मज़दूर और शाम जाने कब से साथ-साथ जीते हैं और रोज़ झोंपड़ी के… Continue reading शाम और मज़दूर-3 / अख़्तर यूसुफ़
शाम और मज़दूर-2 / अख़्तर यूसुफ़
शाम और मज़दूर दोनों नदी में अपना मुँह धोते हैं दिन भर की धूल गर्द चेहरों पे जमी थी थक गए थे दोनों शाम और मज़दूर सोच रहे थे कुटिया जल्दी से पहुँचेंगे मिलकर दोनों खाएंगे रोटी और गुड़ फिर गुड़ की ही चाय बनाएंगे मिलकर दोनों सोंधी-सोंधी चुसकियाँ लेंगे सोच मज़दूर की गुड़ की… Continue reading शाम और मज़दूर-2 / अख़्तर यूसुफ़
शाम और मज़दूर-1 / अख़्तर यूसुफ़
शाम और मज़दूर खेतों के सब्ज़ सन्नाटे से गुज़र रहे हैं बालियाँ खड़ी हैं शाएँ-शाएँ हलका-सा कहीं-कहीं पे होता है गाँव के लड़के और लड़कियाँ बे लिबास उछल-कूद करते हैं गड्ढों में जैसे छपाक फिर साँप कोई लहराता है और फिर छट-पट गिलहरी की धूप खेतों से गुज़र कर पहाड़ों के ऊपर चढ़ती है थकी-थकी… Continue reading शाम और मज़दूर-1 / अख़्तर यूसुफ़
ये औरतें / अख्तर पयामी
सोच लो सोच लो जीने का अंदाज़ नहीं अपनी बाँहों का यही रंग नुमायाँ न करो हुस्न ख़ुद ज़ीनत-ए-महफ़िल है चराग़ाँ न करो नीम-उरियाँ सा बदन और उभरते सीने तंग और रेशमी मलबूस धड़कते सीने तार जब टूट गए साज़ कोई साज़ नहीं तुम तो औरत हो मगर ज़िंस-ए-गिराँ बन न सकीं और आँखों की… Continue reading ये औरतें / अख्तर पयामी
शनासाई / अख्तर पयामी
रात के हाथ पे जलती हुई इक शम-ए-वफ़ा अपना हक़ माँगती है दूर ख़्वाबों के जज़ीरे में किसी रोज़न से सुब्ह की एक किरन झाँकती हैं वो किरन दर पा-ए-आज़ार हुई जाती है मेर ग़म-ख़्वार हुई जाती है आओ किरनों को अँधेरों का कफ़न पहनाएँ इक चमकता हुआ सूरज सर-ए-मक़्तल लाएँ तुम मेरे पास रहो… Continue reading शनासाई / अख्तर पयामी
रिवायत की तख़्लीक़ / अख्तर पयामी
मेरे नग़मे तो रिवायत के पाबंद नहीं तू ने शायद यही समझा था नदीम तू ने समझा था की शबनम की ख़ुनुक-ताबी से मैं तेरा रंग महल और सजा ही दूँगा तू ने समझा था की पीपल के घने साए में अपने कॉलेज के ही रूमान सुनाऊँगा तुझे एक रंगीन सी तितली के परों के… Continue reading रिवायत की तख़्लीक़ / अख्तर पयामी