शाम और मज़दूर-2 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर दोनों नदी में अपना मुँह धोते हैं
दिन भर की धूल गर्द चेहरों पे जमी थी थक गए थे
दोनों शाम और मज़दूर सोच रहे थे कुटिया जल्दी से
पहुँचेंगे मिलकर दोनों खाएंगे रोटी और गुड़ फिर
गुड़ की ही चाय बनाएंगे मिलकर दोनों सोंधी-सोंधी
चुसकियाँ लेंगे सोच मज़दूर की गुड़ की डली मुँह में
पिघली-सी जाती थी शाम सलोनी के होंठ भी मीठे
मीठे होते थे नाच रहे थे दोनों नदी किनारे
शाम सलोनी मीठी-सी और मज़दूर जैसे लैला और मजनूं।

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