झूम कर बदली उठी और छा गई / ‘अख्तर’ शीरानी

झूम कर बदली उठी और छा गई
सारी दुनिया पर जवानी आ गई

आह वो उस की निगाह-ए-मय-फ़रोश
जब भी उट्ठी मस्तियाँ बरसा गई

गेसू-ए-मुश्कीं में वो रू-ए-हसीं
अब्र में बिजली सी इक लहरा गई

आलम-ए-मस्ती की तौबा अल-अमाँ
पारसाई नश्शा बन कर छा गई

आह उस की बे-नियाज़ी की नज़र
आरज़ू क्या फूल सी कुम्हला गई

साज़-ए-दिल को गुदगुदाया इश्क़ ने
मौत को ले कर जवानी आ गई

पारसाई की जवाँ-मर्गी न पूछ
तौबा करनी थी के बदली छा गई

‘अख़्तर’ उस जान-ए-तमन्ना की अदा
जब कभी याद आ गई तड़पा गई

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