कभी जमा होते थे कांकेर की खंडी नदी के किनारे तुम्हारी छाँव में स्वतन्त्रता सेनानी तुम उनका पसीना पोंछते योजनाएँ सुनते हौंसला देखते आज जब मनाई जा रही हैं कियों-कैयों की जन्म-शताब्दियाँ किसे याद होगा तुम्हारे सिवा इन्दरू केवट का गांधीपना देखने भर से उसे तुम्हारी डगालों में पृथ्वी के नीचे सोई जड़ों से दौड़… Continue reading सत्याग्रही पेड़ / अग्निशेखर
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कबूतर सपना / अग्निशेखर
जलावतनी में एक स्वप्न देखा मैंने मेरे छूटे हुए घर के आँगन में फिर से हरा हो गया है चिनार और उसकी एक डाल पर आ बैठी है झक सफ़ेद कबूतरों की एक जोड़ी मुझे देखती अनझिप ये कबूतर उतरना चाह रहे हैं मेरे कंधो पर लगा मुझे ये आए हैं स्वामी अमरनाथ की गुफा… Continue reading कबूतर सपना / अग्निशेखर
धूल / अग्निशेखर
जब हमें दिखाई नहीं देती पता नहीं कहाँ रहती है उस समय और जब हम एक धुली हुई सुबह को जो खुलती है हमारे बीच जैसेकि एक पत्र हो उसके किसी बे-पढ़े वाक्य को छूने पर हमारी उँगली से चिपक जाती है यह कैसे समय में रह रहे हैं हम कि धूल सने काँच पर… Continue reading धूल / अग्निशेखर
कवि का जीवन / अग्निशेखर
कविता लिखना तपे हुए लोहे के घोड़े पर चढ़ना है या उबलते हुए दरिया में छलाँग मार कर मिल आना उन बेचैन हुतात्माओं से जो करते हैं हमारी स्मृति में वास पूछना उनसे शहीद होने के अनुभव और करना महसूस अनपे रक्त में उनके नीले होठों पर दम तोड़ चुके शब्दों को यह कविता मेरे… Continue reading कवि का जीवन / अग्निशेखर
काला दिवस / अग्निशेखर
मै इस तारीख़ का क्या करूँ पहुँचता हूँ बरसों दूर मातृभूमि में सीढ़ियों पर घर की फैल रहा है ख़ून अभी तक मेरी स्मृतियों में गरजते बादलों और कौंधती बिजलियों के बीच स्तब्ध है मेरी अल्पसंख्यक आत्मा वहीं कहीं अधजले मकान के मलबे पर जहाँ इतने निर्वासित बरसों की उगी घास में छिपाकर रखी जाती… Continue reading काला दिवस / अग्निशेखर
जीवन-राग / अग्निशेखर
एक ऊँचे पेड़ की फुनगी में लम्बे नुकीले काँटे की नोक पर आ बैठी चिड़िया और गाने लगी जीवन का गीत और खोलती रही बीच-बीच में सुनहले पंख आकाश में रुक गया कुछ देर सूर्य का विस्मित रथ काँटा नुकीला चुभता गया अन्दर-अन्दर चिड़िया के जीवन में उसकी सोची हुई दुनिया में स्वपन में उड़ारी… Continue reading जीवन-राग / अग्निशेखर
वर्षा / अग्निशेखर
छलनी छलनी मेरे आकाश के उपर से बह रही है स्मृतियों की नदी ओ मातृभूमि! क्या इस समय हो रही है मेरे गांव में वर्षा
गूंगे अंधेरों में / अग्निशेखर
ओ मातृभाषा ! दया करो हमारे नवजात बच्चों पर कहाँ जाएंगे हम तुम्हारे बिना इन गूंगे अंधेरों में गहमागहमी भरी सड़कों पर दौड़ती हुई दूर-दराज़ शहर की बसों के दरवाज़ों पर सवारियों के लटकते गुच्छों के बीच फँसे हम याद करते हुए अपने गाँव पूछेंगे ख़ुद से कौन हैं यहाँ हम क्या है हमारा पता… Continue reading गूंगे अंधेरों में / अग्निशेखर
19 जनवरी 1990 की रात / अग्निशेखर
घाव की तरह खुलती हैं मकानों की खिड़कियाँ छायाओं की तरह झाँकते हैं चेहरे हर तरफ़ फैल रहा है बर्फ़ानी ठंड में शोर हमारी हड्डीयों की सुरंग में घुसने को मचलता हुआ गालियाँ, कोसने, धमकियाँ कितना-कुछ सुन रहे हैं हम तहख़ाने में कोयले की बोरियों के पीछे छिपाई गई मेरी बहनें पिता बिजली बुझाकर घूम… Continue reading 19 जनवरी 1990 की रात / अग्निशेखर
बंसी पारिमू से / अग्निशेखर
(बन्सी पारिमू प्रसिद्ध प्रगतिशील चित्रकार) तुम्हें समझाया था मैंने मत करो चिनारों के काटे जाने पर हंगामा मत चिल्लाओ डल झील की तबाही पर मत कहो सिविल-कर्फ़्यू में भी मरी हैं घरों में सत्ताईस मुसलमान गर्भवती बहनें तुम्हें समझाया था मैंने मत लिखो रंगों से ऎसी कविताएँ जो तुम्हें मरवा डालेंगी एक दिन