काला दिवस / अग्निशेखर

मै इस तारीख़ का क्या करूँ
पहुँचता हूँ बरसों दूर मातृभूमि में

सीढ़ियों पर घर की
फैल रहा है ख़ून अभी तक
मेरी स्मृतियों में
गरजते बादलों
और कौंधती बिजलियों के बीच
स्तब्ध है
मेरी अल्पसंख्यक आत्मा
वहीं कहीं अधजले मकान के मलबे पर
जहाँ इतने निर्वासित बरसों की उगी घास में
छिपाकर रखी जाती हैं
पकिस्तान से आईं बंदूकें

यहाँ किसे बख़्शा गया मेरे देश में
निर्दोष होने के जुर्म में
तैरती हैं आज भी हवा में
दहाड़े मारती स्त्रियों की बददुआएँ

आज के दिन
मैं यहूदियों की तरह
किसी ‘वेलिंग-वाल’ के सामने जाकर
रोना चाहता हूँ ज़ार-ज़ार
अपने जीनोसाईड और जलावतनी पर
और पलटकर
भूल जाना चाहता हूँ
कल्पनातीत
जो जो हुआ हमारे साथ

आज के दिन कोई आए मेरे पास
ले जाए मुझे
किसी पहाड़ी यात्रा पर
मै छूना चाहता हूँ
एक नया और ताज़ा आकाश.

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