आवारा / अख्तर पयामी

ख़ूब हँस लो मेरी आवारा-मिज़ाजी पर तुम मैं ने बरसों यूँ ही खाए हैं मोहब्बत के फ़रेब अब न एहसास-ए-तक़द्दुस न रिवायत की फ़िक्र अब उजालों में खाऊँगी मैं ज़ुल्मत के फ़रेब ख़ूब हँस लो की मेरे हाल पे सब हँसते हैं मेरी आँखों से किसी ने भी न आँसू पोंछे मुझ को हमदर्द निगाहों… Continue reading आवारा / अख्तर पयामी

कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के / अख़्तर नाज़्मी

कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के पत्थर नहीं फेंके वो ख़त भी मगर मैंने जला कर नहीं फेंके ठहरे हुए पानी ने इशारा तो किया था कुछ सोच के खुद मैंने ही पत्थर नहीं फेंके इक तंज़ है कलियों का तबस्सुम भी मगर क्यों मैंने तो कभी फूल मसल कर नहीं फेंके वैसे तो इरादा नहीं… Continue reading कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के / अख़्तर नाज़्मी

सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है / अख़्तर नाज़्मी

सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है ये ज़मी दूर तक हमारी है मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ जिससे यारी है उससे यारी है हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद जिस इमारत पे संगबारी है नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने… Continue reading सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है / अख़्तर नाज़्मी

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ / अख़्तर नाज़्मी

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ। या किसी और तलबगार को दे देता हूँ। धूप को दे देता हूँ तन अपना झुलसने के लिये और साया किसी दीवार को दे देता हूँ। जो दुआ अपने लिये मांगनी होती है मुझे वो दुआ भी किसी ग़मख़ार को दे देता हूँ। मुतमइन… Continue reading जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ / अख़्तर नाज़्मी

लिखा है… मुझको भी लिखना पड़ा है / अख़्तर नाज़्मी

लिखा है….. मुझको भी लिखना पड़ा है जहाँ से हाशिया छोड़ा गया है अगर मानूस है तुम से परिंदा तो फिर उड़ने को पर क्यूँ तौलता है कहीं कुछ है… कहीं कुछ है… कहीं कुछ मेरा सामन सब बिखरा हुआ है मैं जा बैठूँ किसी बरगद के नीचे सुकूँ का बस यही एक रास्ता है… Continue reading लिखा है… मुझको भी लिखना पड़ा है / अख़्तर नाज़्मी

दो शे’र / अख़्तर अंसारी

1. मेरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर ज़माना अपने लिए होशियार कैसा है. 2. याद-ए-माज़ी अज़ाब है या रब छीन ले मुझ से हाफ़िज़ा मेरा

सुनने वाले फ़साना तेरा है / अख़्तर अंसारी

सुनने वाले फ़साना तेरा है सिर्फ़ तर्ज़-ए-बयाँ ही मेरा है यास की तीरगी ने घेरा है हर तरफ़ हौल-नाक अँधेरा है इस में कोई मेरा शरीक नहीं मेरा दुख आह सिर्फ़ मेरा है चाँदनी चाँदनी नहीं ‘अख़्तर’ रात की गोद में सवेरा है

सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम / अख़्तर अंसारी

सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम मस्त-ए-शराब-ए-शौक़ हूँ ख़य्याम की क़सम इशरत-फ़रोश था मेरा गुज़रा हुआ शबाब कहता हूँ खा के इशरत-ए-अय्याम की क़सम होती थी सुब्ह-ए-ईद मेरी सुब्ह पर निसार खाती थी शाम-ए-ऐश मेरी शाम की क़सम ‘अख़्तर’ मज़ाक़-ए-दर्द का मारा हुआ हूँ मैं खाते हैं अहल-ए-दर्द मेरे नाम की क़सम

समझता हूँ मैं सब कुछ / अख़्तर अंसारी

समझता हूँ मैं सब कुछ सिर्फ़ समझाना नहीं आता तड़पता हूँ मगर औरों को तड़पाना नहीं आता ये जमुना की हसीं अमवाज क्यूँ अर्गन बजाती हैं मुझे गाना नहीं आता मुझे गाना नहीं आता ये मेरी ज़ीस्त ख़ुद इक मुस्तक़िल तूफ़ान है ‘अख़्तर’ मुझे इन ग़म के तूफ़ानों से घबराना नहीं आता

फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया / अख़्तर अंसारी

फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया दिल अजब अंदाज़ से लहरा गया उस से पूछे कोई चाहत के मज़े जिस ने चाहा और जो चाहा गया एक लम्हा बन के ऐश-ए-जावेदाँ मेरी सारी ज़िंदगी पर छा गया ग़ुँचा-ए-दिल है कैसा ग़ुँचा था जो खिला और खिलते ही मुरझा गया रो रहा हूँ मौसम-ए-गुल देख… Continue reading फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया / अख़्तर अंसारी