फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया / अख़्तर अंसारी

फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया
दिल अजब अंदाज़ से लहरा गया

उस से पूछे कोई चाहत के मज़े
जिस ने चाहा और जो चाहा गया

एक लम्हा बन के ऐश-ए-जावेदाँ
मेरी सारी ज़िंदगी पर छा गया

ग़ुँचा-ए-दिल है कैसा ग़ुँचा था
जो खिला और खिलते ही मुरझा गया

रो रहा हूँ मौसम-ए-गुल देख कर
मैं समझता था मुझे सब्र आ गया

ये हवा ये बर्ग-ए-गुल का एहतिज़ाज़
आज मैं राज़-ए-मुसर्रत पा गया

‘अख़्तर’ अब बरसात रुख़्सत हो गई
अब हमारा रात का रोना गया

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