उधर उस नीम की कलगी पकड़ने को झुके बादल। नयी रंगत सुहानी चढ़ रही है सब के माथे पर। उड़े बगुल, चले सारस, हरस छाया किसानों में। बरस भर की नयी उम्मीद छायी है बरसने के तरानों में। बरस जा रे, बरस जा ओ नयी दुनिया के सुख सम्बल। पड़े हैं खेत छाती चीर कर… Continue reading उठे बादल, झुके बादल / हरिनारायण व्यास
जौं लौं जीवै तौं लौं हरि भजु / हरिदास
जौं लौं जीवै तौं लौं हरि भजु, और बात सब बादि। दिवस चारि को हला भला, तू कहा लेइगो लादि॥ मायामद, गुनमद, जोबनमद, भूल्यो नगर बिबादि। कहि ‘हरिदास लोभ चरपट भयो, काहे की लागै फिरादि॥
तिनका बयारि के बस / हरिदास
तिनका बयारि के बस। ज्यौं भावै त्यौं उडाइ लै जाइ आपने रस॥ ब्रह्मलोक सिवलोक और लोक अस। कह ‘हरिदास बिचारि देख्यो, बिना बिहारी नहीं जस॥
सोई सही राजा दान धारा न रुकति जाकी / हरिकेश
सोई सही राजा दान धारा न रुकति जाकी, जुद्ध जस धारा देवदारा मुख जोबती। कबि हरिकेस कहै सोई सही राजा, जाकी प्रजा ध्रुव धरम धुजा के छाँह सोवती। ऎसे तो कहावत हैँ कोरी राजा कोढ़ी राजा, घर घर राजा मान मैया मुँह जोबती। सुमिरि सुमिरि चमरैलियाँ कुरैलियाहू, मूये ते खसम राजा राजा कहि रोबती।
नाव चली / हरिकृष्णदास गुप्त ‘हरि’
आओ नाव तिराएँ दीदी से बनवाएँ, जल टब में भर लाएँ आओ नाव बनाएँ! छप-छप, छप-छप करती डगमग-डगमग डोले नाव चली, नाव चली, उछल-उछल हम बोले!
नाव बनाओ / हरिकृष्णदास गुप्त ‘हरि’
नाव बनाओ, नाव बनाओ, भैया मेरे जल्दी आओ। वह देखो पानी आया है, घिर-घिरकर बादल छाया है, सात समंदर भर लाया है, तुम रस का सागर भर लाओ। पानी सचमुच खूब पड़ेगा, लंबी-चौड़ी गली भरेगा, लाकर घर में नदी धरेगा, ऐसे में तुम भी लहरओ। ले आओ कागज़ चमकीला, लाल-हरा या नीला-पीला, रंग-बिरंगा खूब रंगीला,… Continue reading नाव बनाओ / हरिकृष्णदास गुप्त ‘हरि’
बुढ़िया गुड़िया / हरिकृष्णदास गुप्त ‘हरि’
गुड़िया मेरी-मेरी गुड़िया, गुड़िया है, बस बिल्कुल बुढ़िया! दाँत बत्तीसों उसके टूटे, बोले, थूक फुहारा छूटे। सिर है बस बालों का बंडल, यों समझो, सन का है जंगल। गुड़िया मेरी, मेरी गुड़िया! बुढ़िया है, बस बिल्कुल बुढ़िया! चुँधी-चुँधी आँखें है रखती, कुछ का कुछ उनसे है लखती। कानों से भी कम सुनती है, अटकल-पच्चू ही… Continue reading बुढ़िया गुड़िया / हरिकृष्णदास गुप्त ‘हरि’
कविवर तोंदूराम / हरिकृष्ण देवसरे
कविवर तोंदूराम बुझक्कड़ कभी-कभी आ जाते हैं। खड़ी निरंतर रहती चोटी, आँखें धँसी मिचमिची छोटी, नाक चायदानी की टोटी, अंग-अंग की छटा निराली, भारी तोंद हिलाते हैं। कविवर तोंदूराम बुझक्कड़ कभी-कभी आ जाते हैं। कंधे पर लाठी बेचारी, लटका उसमें पोथा भारी, लिए हाथ में सुँघनी प्यारी, सूँघ-सूँघकर ‘आ छीं-आ छीं’ का आनंद उठाते हैं।… Continue reading कविवर तोंदूराम / हरिकृष्ण देवसरे
ऐनक / हरिओम राजोरिया
घर में रहता तो आता किस काम इसलिए चला आया यह भी बुढ़िया की अन्तिम यात्रा में सिर के पास आँटी से अटका चल रहा है अरथी में साथ-साथ याद दिलाता हुआ उस स्त्री की जो कुछ घण्टे पहले निखन्नी खाट पर बैठी कुतर रही थी सुपारी और एक झटके में ही चल बसी बुढ़िया… Continue reading ऐनक / हरिओम राजोरिया
आम / हरिओम राजोरिया
असमय हवा के थपेड़ों से झड़ गये आम अपने बोझ से नहीं झड़े समय की मार से बेमौसम अप्रैल की हवाओं ने एक घर भर दिया कच्चे आमों से आम न हों जैसे भगदड़ में मारे गये शव हों मासूम बच्चों के जो आँखों ने सँजोये थे झड़ गये वे स्वप्न गयी कई दोपहरों की… Continue reading आम / हरिओम राजोरिया