बुढ़िया गुड़िया / हरिकृष्णदास गुप्त ‘हरि’

गुड़िया मेरी-मेरी गुड़िया,
गुड़िया है, बस बिल्कुल बुढ़िया!

दाँत बत्तीसों उसके टूटे,
बोले, थूक फुहारा छूटे।
सिर है बस बालों का बंडल,
यों समझो, सन का है जंगल।
गुड़िया मेरी, मेरी गुड़िया!
बुढ़िया है, बस बिल्कुल बुढ़िया!

चुँधी-चुँधी आँखें है रखती,
कुछ का कुछ उनसे है लखती।
कानों से भी कम सुनती है,
अटकल-पच्चू ही गुनती है।
गुड़िया मेरी, मेरी गुड़िया,
बुढ़िया है, बस बिल्कुल बुढ़िया!

झुक-झुक दुहरी हुई कमर है,
गरदन कँपती थर-थर-थर है।
चलती है वह लाठी लेके,
बस, दस-बीस कदम ले-दे के।
गुड़िया मेरी, मेरी गुड़िया
बुढ़िया है, बस बिल्कुल बुढ़िया!

काम न अब उससे है होता,
ले ली माला, छूटा सरौंता।
पर है जीभ अभी तक चली,
फर-फर काट सभी की करती।
गुड़िया मेरी, मेरी गुड़िया,
बुढ़िया है, बस बिल्कुल बुढ़िया।

हुई निकम्मी सब हैं कहते,
दूर-दूर खूसट कह रहते।
पर खूसट मुझको तो प्यारी,
सूझ-बूझ में जग से न्यारी।
गुड़िया मेरी, मेरी गुड़िया,
बुढ़िया है, बस बिल्कुल बुढ़िया!

-साभार: साप्ताहिक हिन्दुस्तान, जून 1957

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