सैर-ए-दुनिया से ग़रज़ थी महव-ए-दुनिया कर दिया मैं ने क्या चाहा मिरे अल्लाह ने क्या कर दिया रोकने वाला न था कोई ख़ुदा को इस लिए जो कुछ आया उस के जी में बे-मुहाबा कर दिया हाँ उसी कम-बख़्त दिल ने कर दिया इफ़शा-ए-राज़ हाँ उसी कम बख़्त दिल मुझ को को कर दिया इश्क़… Continue reading सैर-ए-दुनिया से ग़रज़ थी महव-ए-दुनिया कर दिया / हरी चंद अख़्तर
जिस ज़मीं पर तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है / हरी चंद अख़्तर
जिस ज़मीं पर तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है एक इक ज़र्रा वहाँ क़िबला नुमा होता है काश वो दिल पे रक्खे हाथ और इतना पूछे क्यूँ तड़प उठता है क्या बात है क्या होता है बज़्म-ए-दुश्मन है ख़ुदा के लिए आराम से बैठ बार बार ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे क्या होता है मेरी सूरत मिरी हालत मिरी… Continue reading जिस ज़मीं पर तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है / हरी चंद अख़्तर
सजि सेज रँग के महल मे उमँग भरी / हरिश्चन्द्र
सजि सेज रँग के महल मे उमँग भरी , पिय गर लागि काम कसकेँ मिटाए लेति । ठानि विपरीत पूरे मैन के मसूसनि सोँ , सुरति समर जय पत्रहिँ लिखाए लेति । हरिचँद केलि कला परम प्रवीन तिया , जोम भरि पियै झकझोरनि हराए लेति । याद करि पीय की वे निरदई घातेँ आज ,… Continue reading सजि सेज रँग के महल मे उमँग भरी / हरिश्चन्द्र
राधा श्याम सेवैँ सदा वृन्दावन वास करैँ / हरिश्चन्द्र
राधा श्याम सेवैँ सदा वृन्दावन वास करैँ, रहैँ निहचिँत पद आस गुरुवरु के । चाहैँ धन धाम ना आराम सोँहै काम , हरिचँदजू भरोसे रहैँ नन्दराय घरु के । एरे नीच नृप हमैँ तेज तू देखावै काह , गज परवाही कबौँ होहिँ नाहिँ खरु के । होय ले रसाल तू भले ही जगजीव काज ,… Continue reading राधा श्याम सेवैँ सदा वृन्दावन वास करैँ / हरिश्चन्द्र
क्या किया आज तक क्या पाया? / हरिशंकर परसाई
मैं सोच रहा, सिर पर अपार दिन, मास, वर्ष का धरे भार पल, प्रतिपल का अंबार लगा आखिर पाया तो क्या पाया? जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा जब थाप पड़ी, पग डोल उठा औरों के स्वर में स्वर भर कर अब तक गाया तो क्या गाया? सब लुटा विश्व को रंक हुआ रीता तब… Continue reading क्या किया आज तक क्या पाया? / हरिशंकर परसाई
जगत के कुचले हुए पथ पर भला कैसे चलूं मैं? / हरिशंकर परसाई
किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको नहीं है पद चिह्न का आधार भी दरकार मुझको ले निराला मार्ग उस पर सींच जल कांटे उगाता और उनको रौंदता हर कदम मैं आगे बढ़ाता शूल से है प्यार मुझको, फूल पर कैसे चलूं मैं? बांध बाती में हृदय की आग चुप जलता रहे जो और… Continue reading जगत के कुचले हुए पथ पर भला कैसे चलूं मैं? / हरिशंकर परसाई
रसूल हमजातोव / हरिराम मीणा
1. कविता आग है इस आग में अंगारों के ऊपर मशाल की लौ है लौ से बढ़कर उसकी रोशनी बाहरी अन्धकार को भगाने वाली भीतर की आग है कविता । 2. उकाब उड़ता हो कितने भी ऊँचे आकाश में आँखें उसकी देखती हैं भूख-प्यास बुझाने वाली धरती को कल्पना के खटोले में उड़ान भरती कविता… Continue reading रसूल हमजातोव / हरिराम मीणा
दोहा / भाग 2 / हरिप्रसाद द्विवेदी
कूकरु उदरु खलाय कैं, घर घर चाँटत चून। रहो रहत सद खून सों, नित नाहर नाखून।।11।। पैरि पार असि धार कै, नाखि युद्ध नर मीर। भेदि भानु मण्डलहिं अब, चल्यौ कहाँ रणधीर।।12।। औसरू आवत प्रान पै, खेलि जाय गहि टेक। लाखनु बीच सराहियै, प्रकृति बीर सो एक।।13।। सीस हथेरी पर धरें, ठौकत भुज मजबूत। छिति… Continue reading दोहा / भाग 2 / हरिप्रसाद द्विवेदी
दोहा / भाग 1 / हरिप्रसाद द्विवेदी
जयति कंस-करि-केहरी, मधु-रिपु केशी-काल। कालिय-मद-मर्दन हरे, केशव कृष्ण कृपाल।।1।। आदि मध्य अबसान हूँ, जा में उदित उछाह। सुरस वीर इकरस सदा, सुभग सर्व रस-नाह।।2।। खल-खण्डन मण्डन-सुजन, सरल सुहृद स विवेक। गुण-गँभीर रण सूरमा, मिलतु लाख महँ एक।।3।। रण-थल मूर्च्छित स्वामि के, लीनें प्राण बचाय। गीधनु निज तनु-माँसु दै, धन्य संयमा राय।।4।। सुन्दर सत्य-सरोज सुचि, बिगस्यो… Continue reading दोहा / भाग 1 / हरिप्रसाद द्विवेदी
एक भावना / हरिनारायण व्यास
इस पुरानी जिन्दगी की जेल में जन्म लेता है नया मन। मुक्त नीलाकाश की लम्बी भुजाएँ हैं समेटे कोटि युग से सूर्य, शशि, नीहारिका के ज्योति-तन। यह दुखी संसृति हमारी, स्वप्न की सुन्दर पिटारी भी इसी को बाहुओं में आत्म-विस्मृत, सुप्त निज में ही सिमट लिपटी हुई है। किन्तु मन ब्रह्माण्ड इससे भी बड़ा है… Continue reading एक भावना / हरिनारायण व्यास