दोहा / भाग 1 / हरिप्रसाद द्विवेदी

जयति कंस-करि-केहरी, मधु-रिपु केशी-काल।
कालिय-मद-मर्दन हरे, केशव कृष्ण कृपाल।।1।।

आदि मध्य अबसान हूँ, जा में उदित उछाह।
सुरस वीर इकरस सदा, सुभग सर्व रस-नाह।।2।।

खल-खण्डन मण्डन-सुजन, सरल सुहृद स विवेक।
गुण-गँभीर रण सूरमा, मिलतु लाख महँ एक।।3।।

रण-थल मूर्च्छित स्वामि के, लीनें प्राण बचाय।
गीधनु निज तनु-माँसु दै, धन्य संयमा राय।।4।।

सुन्दर सत्य-सरोज सुचि, बिगस्यो धर्म-तड़ाग।
मुरभित चहुँ हरिचन्द को, जुग-जुग पुन्य-पराग।।5।।

इत गाँधी उत सत्य दोउ, मिलै परस्पर चाहि।
यह छाँड़त नहिं ताहि त्यों, वह छाँड़त नहिं याहि।।6।।

़़धर्मबीर हरदौल जू, अजहुँ तुम्हारे गीत।
ह्याँ घर घर तिय गावतीं, समुझि सनातन रीति।।7।।

दयानन्द आरज पथिक, यतिवर श्रद्धानन्द।
जगिहै तुम्हरे रुधिर तें, जुग-जुग धर्म अमन्द।।8।।

साध्यो सहज सुप्रेम-ब्रत, चढ़ि खाँडे की धार।
बिरह बीर-ब्रज-बाल हीं, रसिक मेंढ़ रखवार।।9।।

सुरतरु लै कीजै कहा, अरु चिन्तामणि ढेरु।
इक दधीचि की अस्थि पै, बारिय कोटि सुमेरु।।10।।

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