शहर के फ़ुट-पाथ पर कुछ चुभते मंज़र देखना सर्द रातों में कभी घर से निकल कर देखना ये समझ लो तिश्नगी का दौर सर पर आ गया रात को ख़्वाबों में रह रह कर समुंदर देखना किस के हाथों में हैं पत्थर कौन ख़ाली हाथ है ये समझने के लिए शीशा सा बन कर देखना… Continue reading शहर के फ़ुट-पाथ पर कुछ चुभते मंज़र देखना / सईद अख्तर
ये किस कि हुस्न की जल्वागरी है / सईद अख्तर
ये किस कि हुस्न की जल्वागरी है जहाँ तक देखता हूँ रौशनी है अगर होते नहीं हस्सास पत्थर तिरी आँखों में ये कैसी नमी है यक़ीं उठ जाए अपने दस्त-ओ-पा से उसी का नाम लोगो ख़ुद-कुशी है अगर लम्हों की क़ीमत जान जाएँ हर इक लम्हे में पोशीदा सदी है तुझे भी मुँह के बल… Continue reading ये किस कि हुस्न की जल्वागरी है / सईद अख्तर
करूँ मैं कहाँ तक मुदारात रोज़ / रंगीन
करूँ मैं कहाँ तक मुदारात रोज़ तुम्हें चाहिए है वही बात रोज़ मुझे घर के लोगों का डर है कमाल करूँ किस तरह से मुलाक़ात रोज़ मिरा तेरा चर्चा है सब शहर में भला आऊँ क्यूँकर मैं हर रात रोज़ कहाँ तक सुनूँ कान तो उड़ गए तिरी सुनते सुनते हिकायात रोज़ गए हैं मिरे… Continue reading करूँ मैं कहाँ तक मुदारात रोज़ / रंगीन
अब मेरी दो-गाना को मिरा ध्यान है क्या ख़ाक / रंगीन
अब मेरी दो-गाना को मिरा ध्यान है क्या ख़ाक इंसान की अन्ना उसे पहचान है क्या ख़ाक मिलती नहीं वो मुझ को तुम्हीं अब तो बता दो इस बात में उस का अजी नुक़सान है क्या ख़ाक हैं याद बहाने तो उसे ऐसे बहुत से आने को यहाँ चाहिए सामान है क्या ख़ाक उल्फ़त मिरी… Continue reading अब मेरी दो-गाना को मिरा ध्यान है क्या ख़ाक / रंगीन
रीते घट सम्बन्ध हुए / संध्या सिंह
सूख चला है जल जीवन का अर्थहीन तटबन्ध हुए शुष्क धरा पर तपता नभ है रीते घट सम्बन्ध हुए सन्देहों के कच्चे घर थे षड्यन्त्रों की सेन्ध लगी अहंकार की कंटक शैया मतभेदों में रात जगी अवसाद कलह की सत्ता में उत्सव पर प्रतिबन्ध हुए ढाई आखर वेद छोड़ कर हम बस इतने साक्षर थे… Continue reading रीते घट सम्बन्ध हुए / संध्या सिंह
प्रतिरोध / संध्या सिंह
पर्वत देता सदा उलाहने पत्थर से सब बन्द मुहाने मगर नदी को ज़िद ठहरी है सागर तक बह जाने की गिरवी सब कुछ ले कर बैठा संघर्षों का कड़क महाजन कर्तव्यों की अलमारी में बन्द ख़ुशी के सब आभूषण मगर नींद को अब भी आदत सपना एक दिखाने की मर्म छुपा है हर झुरमुट में… Continue reading प्रतिरोध / संध्या सिंह
सड़क और जूतियाँ / संध्या पेडणेकर
कमसिन कम्मो ने बुढाती निम्मो के गले में बाँहें डाल कहा, ‘आख़िर….. उसने मुझे रख ही लिया!!!’ झटके से उसे अपने से अलग कर निम्मो बोली, ‘मुए को रसभरी ककड़ी मुफ्त की मिली….’ कम्मो की सपनीली आँखों ने कहा, ‘मैं उससे प्रेम करती हूँ…. और… मेरा प्रेम प्रतिदान नहीं माँगता…’ निम्मो बोली, ‘सही है लेकिन,… Continue reading सड़क और जूतियाँ / संध्या पेडणेकर
रिश्ते/ संध्या पेडणेकर
स्नेह नहीं शुष्क काम है लपलप वासना है क्षणभंगुर क्षण के बाद रीतनेवाली मतलब से जीतनेवाली रिश्तेदारी है खाली घड़े हैं अनंत पड़े हैं उनके अन्दर व्याप्त अन्धःकार उथला है पर पार नहीं पा सकते उससे अन्धःकार से परे कुछ नहीं उजास एक आभास है क्षितिज कोई नहीं केवल आकाश ही आकाश है
औरतें-2 / संध्या नवोदिता
औरतों ने अपने तन का सारा नमक और रक्त इकट्ठा किया अपनी आँखों में और हर दुख को दिया उसमें हिस्सा हज़ारों सालों में बनाया एक मृत सागर आँसुओं ने कतरा-कतरा जुड़कर कुछ नहीं डूबा जिसमें औरत के सपनों और उम्मीदों के सिवाय
औरतें-1 / संध्या नवोदिता
कहाँ हैं औरतें ? ज़िन्दगी को रेशा-रेशा उधेड़ती वक़्त की चमकीली सलाइयों में अपने ख़्वाबों के फंदे डालती घायल उँगलियों को तेज़ी से चला रही हैं औरतें एक रात में समूचा युग पार करतीं हाँफती हैं वे लाल तारे से लेती हैं थोड़ी-सी ऊर्जा फिर एक युग की यात्रा के लिए तैयार हो रही हैं… Continue reading औरतें-1 / संध्या नवोदिता