कैसा तुमने जाल बुना है / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी

मकड़ी रानी, मकड़ी रानी बतलाओ तो प्रश्न हमारा, कैसे तुमने जाल बुना है इतना सुंदर, इतना प्यारा! जिससे जाल बुना वो धागा भला कहाँ से लाती हो, बुनने वाली जो मशीन है वह भी कहाँ छिपाती हो? एक प्रार्थना तुमसे मेरी है छोटी-सी सुनो जरा, मैं पतंग का धागा दे दूँ मेरे कपड़े बुनो जरा!

मोहन बिनु कौन चरैहैं गैया / लक्ष्मीनाथ परमहंस

मोहन बिनु कौन चरैहैं गैया । नहिं बलदेव नहिं मनमोहन रोवहिं यशोदा मौया । को अब भोरे बछरू खोलिहैं को जैहैं गोठ दुहैया । एकसरि नंद बबा क्या करिहिं दोसरो न काउ सहैया । को अब कनक कटोरा भरि-भरि माखन क्षीर लुटैया । को अब नाचि-नाचि दधि खैहैं को चलिहैं अधपैया । को अब गोप… Continue reading मोहन बिनु कौन चरैहैं गैया / लक्ष्मीनाथ परमहंस

नाथ हो कोटिन दोष हमारो / लक्ष्मीनाथ परमहंस

नाथ हो कोटिन दोष हमारो । कहाँ छिपाऊँ, छिपत ना तुमसे, रवि ससि नैन तिहारौ ।। टेक ।। जल, थल, अनल, अकास, पवन मिलि, पाँचो है रखवारो । पल-पल होरि रहत निसी बासर तिहुँ पुर साँझ सकारो ।। जागत, सोवत, उठत, बैठत करत फिरत व्यवहारो । रहत सदा संग, साथ न छोड़त, काल पुरुष बरियारो… Continue reading नाथ हो कोटिन दोष हमारो / लक्ष्मीनाथ परमहंस

खरगोश / लक्ष्मीनारायण ‘पयोधि’

नरम-गुदगुदा, प्यारा-प्यारा, जंगल की आँखों का तारा। नन्हा-नन्हा, नटखट-चंचल, ज्यों कपास का उड़ता बादल। दिन भर उछल-कूद है करता, मस्ती में चौकड़ियाँ भरता। लंबे कान, लाल हैं आँखें, हर आहट पर दुबके-झाँके। झालर वाली पूँछ उठाकर, घूमे आवारा खरगोश। हरी दूब को कुतर-कुतरकर खाए बेचारा खरगोश।

नव्य न्याय का अनुशासन-2 / लक्ष्मीकांत वर्मा

तुम गुलाब की क्यारियों में आग लगना चाहते हो लगा दो : किन्तु गुलाब की सुगन्ध बचा लो तुम हरी-भरी लताओं को लपटों में बदलना चाहते हो बदल दो : किन्तु हरियाली मन में बसा लो तुम प्रतिमाएँ तोड़ना चाहते हो तोड़ दो : किन्तु आस्थाएँ ढाल लो तुम ज्ञान को नकारना चाहते हो नकार… Continue reading नव्य न्याय का अनुशासन-2 / लक्ष्मीकांत वर्मा

नव्य न्याय का अनुशासन-1 / लक्ष्मीकांत वर्मा

तुम्हारे इर्द-गिर्द फैलती अफ़वाहों से मैं नहीं घबराता तुम्हारे आक्रोश, क्रोध और आदेश से भी मैं नहीं डरता जब तुम चीख़ते-चिल्लाते, शोर मचाते हो मैं तुम्हें आश्चर्य से नहीं देखता, क़िताबों को फाड़कर जब तुम होली जलाते हो हर हरियाली को चिता की सुलगती आग में– बदलना चाहते हो, मौलश्री की घनी छाया में आफ़ताब… Continue reading नव्य न्याय का अनुशासन-1 / लक्ष्मीकांत वर्मा

सदियों से शोषित-प्रताड़ित दलित जन / लक्ष्मी नारायण सुधाकर

सदियों से शोषित-प्रताड़ित दलित जन दासता की बेड़ियों में बँधे बिलखाते थे अस्पृश्य-अन्त्यज्य-अधर्म, धर्म-शास्त्र कहें अधिकार-वंचित से विवश अकुलाते थे विद्या से विहीन धनहीन दीन पंगु बने पशुओं के तुल्य द्विज उनको सताते थे ‘सुधाकर’ आम्बेडकर बाबा ने जगाया उन्हें स्वाभिमान जगा छुटकारा दिलवाते थे!

जहाँ तक सवाल है / लक्ष्मी नारायण सुधाकर

जहाँ तक सवाल है शोषितों के हाल का फँसे हुए सदियों से शोषकों के जाल में निगल न पाये पर छोड़ भी तो नहीं रहे पिसे जा रहे हैं क्रूर काल ही के गाल में ऊँच-नीच, छूट-छात, जाति-पात कीच-बीच वारि बिन मीन अकुलाति जिमि ताल में ‘सुधाकर’ स्वतन्त्र भले भारत हुआ है बन्धु शोषित स्वतन्त्र… Continue reading जहाँ तक सवाल है / लक्ष्मी नारायण सुधाकर

अभिलाषा / एन. आर. सागर

हाँ-हाँ मैं नकारता हूँ ईश्वर के अस्तित्व को संसार के मूल में उसके कृतित्व को विकास-प्रक्रिया में उसके स्वत्व को प्रकृति के संचरण नियम में उसके वर्चस्व को, क्योंकि ईश्वर एक मिथ्या विश्वास है एक आकर्षक कल्पना है अर्द्ध-विकसित अथवा कलुषित मस्तिष्क की तब जाग सकता है कैसे इसके प्रति श्रद्धा का भाव? सहज लगाव?… Continue reading अभिलाषा / एन. आर. सागर

तब तुम्हें कैसा लगेगा? / एन. आर. सागर

दि तुम्हें ज्ञान के आलोक से दूर अनपढ़-मूर्ख बनाकर रखा जाए, धन-सम्पति से कर दिया जाए- वंचित छीन लिए जाएँ अस्त्र-शस्त्र और विवश किया जाए हीन-दीन अधिकारविहीन जीवन जीने को तब तुम्हें कैसा लगेगा ? यदि- तुम्हारे खेत-खलिहान, मकान-दुकान लूट लिए जाएँ या जलाकर कर दिए जाएँ ख़ाक और तुम्हें कर दिया जाए बाध्य सपरिवार… Continue reading तब तुम्हें कैसा लगेगा? / एन. आर. सागर