आज़िम-ए-दश्त-ए-जुनूँ हो के मैं घर से उट्ठा फिर बहार आई क़दम फिर नए सिरे से उट्ठा उम्र भर दिल न मेरा यार के घर से उट्ठा बैठा दीवार के निचे जो मैं दर से उट्ठा सबब-ए-रहमत-ए-हक़ हो गया मैं तर-दामन अब्र छाया जो धुआँ नार-ए-सक़र से उट्ठा हो गया आलम-ए-बाला से भी बाला पानी जब… Continue reading आज़िम-ए-दश्त-ए-जुनूँ हो के मैं घर से उट्ठा / वज़ीर अली ‘सबा’ लखनवी
उपजेगी द्विजाति में रावण से / वचनेश
उपजेगी द्विजाति में रावण से मदनान्ध अघी नर-नारि-रखा। रिपु होंगे सभी निज भाइयों के धन धान्यहिं छीने के आप-चखा। यदि पास तलाक हुई तो सुनो हमने ‘वचनेश` भविष्य लखा। फिर होंगी नहीं यहाँ सीता सती मड़रायेंगी देश में सूपनखा।।
घर सास के आगे / वचनेश
घर सास के आगे लजीली बहू रहे घूँघट काढ़े जो आठौ घड़ी। लघु बालकों आगे न खोलती आनन वाणी रहे मुख में ही पड़ी। गति और कहें क्या स्वकन्त के तीर गहे गहे जाती हैं लाज गड़ी। पर नैन नचाके वही कुँजड़े से बिसाहती केला बजार खडी।।
पौडर लगाये अंग / वचनेश
पौडर लगाये अंग गालों पर पिंक किये कठिन परखना है गोरी हैं कि काली हैं। क्रीम को चुपर चमकाये चेहरे हैं चारु, कौन जान पाये अधबैसी हैं कि बाली हैं। बातों में सप्रेम धन्यवाद किन्तु अन्तर का, क्या पता है शील से भरी हैं या कि खाली हैं। ‘वचनेश` इनको बनाना घरवाली यार, सोच समझ… Continue reading पौडर लगाये अंग / वचनेश
पृथ्वी के कक्ष में / वंशी माहेश्वरी
पहले की तरह नहीं होगा पहला आज की नंगी आँखों में उदित होती उम्मीद कल की देह में अस्त हो जाएगी सूर्य की आत्मा में उदित होगा कल पृथ्वी के कक्ष में चलेगी कक्षा कक्षा के बाहर आते ही आकाश का नहीं रहेगा नामोनिशान ।
रंग / वंशी माहेश्वरी
चढ़ते-उतरते हैं रंग रंग उतरते-चढ़ते हैं कितने ही रंग कर जाते हैं रंगीन जीवन मटमैला अदृश्य सीढ़ी हैं रंग आने-जाने वाले दृश्य के बाहर दृश्य का सिंहावलोकन विचार आकाश की टपकती छत से कितने रंग बिखरे हैं कितने ही बिखरने को हैं जिन हाथों में ब्रश हैं आधे-अधूरे चित्र चित्रित जिनमें वे कैनवॉस छिन गए… Continue reading रंग / वंशी माहेश्वरी
महाकाव्य / वंदना केंगरानी
मैं महाकाव्य लिख रही हूँ सैंडिल पर पालिश करते हुए नहाते हुए बस पकड़ते हुए बॉस की डाँट खाते हुए रोज़ शाम दिन—भर की थकान मिटाने का बेवजह उपक्रम करते चाय पीते तुम्हें याद करते हुए महाकाव्य लिख रही हूँ !
प्यार पर बहुत हो चुकी कविताएँ / वंदना केंगरानी
प्यार पर बहुत हो चुकी कविताएँ पिता की फटी बिवाइयों पर अभी तक नहीं लिखी कविताएँ जो रिश्ता ढूँढ़ते-ढूँढ़ते टूटने पर कसकते हैं नहीं पढ़ी गई कविताएँ बेटी के चेहरों की रेखाओं पर जो- उभर आती है अपने आप असमय ही मुझे लगता है अब इन रेखाओं की गहराइयों पर कविताएँ लिखूँ प्यार पर बहुत… Continue reading प्यार पर बहुत हो चुकी कविताएँ / वंदना केंगरानी
वायरस / क़ाज़ी सलीम
मसीह-ए-वक़्त तुम बताओ क्या हुआ ज़बाँ पे ये कसीला-पन कहाँ से आ गया ज़रा सी देर के लिए पलक झपक गई तो राख किस तरह झड़ी सुना है दूर देस से कुछ ऐसे वायरस हमारे साहिलों पे आ गए जिन के ताब-कार-ए-सहर के लिए अमृत और ज़हर एक हैं अब किसी के दरमियान कोई राब्ता… Continue reading वायरस / क़ाज़ी सलीम
रूस्तगारी / क़ाज़ी सलीम
ज़ख़्म फिर हरे हुए फिर लहू तड़प तड़प उठा अंधे रास्तों पे बे-तकान उड़ान के लिए बंद आँख की बहिश्त में सब दरीचे सब किवाड़ खुल गए और फिर अपनी ख़ल्क़ की हुई बसीत काएनात में धुँद बन के फैलता सिमटता जा रहा हूँ मैं ख़ुदा-ए-लम-यज़ल के साँस की तरह मेरे आगे आगे इक हुजूम… Continue reading रूस्तगारी / क़ाज़ी सलीम