आज़िम-ए-दश्त-ए-जुनूँ हो के मैं घर से उट्ठा / वज़ीर अली ‘सबा’ लखनवी

आज़िम-ए-दश्त-ए-जुनूँ हो के मैं घर से उट्ठा
फिर बहार आई क़दम फिर नए सिरे से उट्ठा

उम्र भर दिल न मेरा यार के घर से उट्ठा
बैठा दीवार के निचे जो मैं दर से उट्ठा

सबब-ए-रहमत-ए-हक़ हो गया मैं तर-दामन
अब्र छाया जो धुआँ नार-ए-सक़र से उट्ठा

हो गया आलम-ए-बाला से भी बाला पानी
जब से तूफ़ान मेरे दीदा-ए-तर से उट्ठा

इश्क़-ए-गेसू ने न छोड़ा दिल-ए-पुर-दाग़ अपना
बैठ कर साँप न गुंजीना-ए-ज़र से उट्ठा

पड़ गई धूम ज़माने में क़यामत आई
फ़ित्ना ऐसा मेरे नालों के असर से उट्ठा

गिर्या-ए-उल्फ़त-ए-दंदाँ में ‘सबा’ डूब गया
आज तूफ़ान नया आब-ए-गोहर से उट्ठा