पानी-3 / श्रीप्रकाश मिश्र

पानी शहर से गायब हो रहा था और पूरा शहर देख रहा था पानी पड़ोसी से मांग रहा था और पड़ोसी के चेहरे से पानी ग़ायब हो रहा था मैं देख रहा था राजनीति करने का यही वह मौक़ा है जिसे मैं जाने कब से खोज रहा था मैंने पानी की ओर से कहा :… Continue reading पानी-3 / श्रीप्रकाश मिश्र

पानी-2 / श्रीप्रकाश मिश्र

पानी का गीत मैंने सुना था जब वह धीरे-धीरे बह रहा था कड़ी ज़मीन पर अपनी ही तरंगों से टकराकर गा रहा था उसी गीत को मैंने सुना था जब वह पर्वतमाथ से कूदकर घाटी में भर रहा था एक सहास उठ रही थी सन्नाटे को मार रही थी हो सकता है किसी को उससे… Continue reading पानी-2 / श्रीप्रकाश मिश्र

पानी-1 / श्रीप्रकाश मिश्र

जो पत्ते की नोक से सरककर कंकड़ में छेद करता है खो जाता है रेत में रेत के गर्भ में पड़ा वह प्रतीक्षा करता है कभी-कभी तो अनन्त काल तक एक सूक्ष्मतम सूराख़ के निर्माण की जिसके सहारे निकल कर चीर दे चट्टान की छाती पर्वत का माथ और जाने कितनी बाधाओं को पारकर पहुँच… Continue reading पानी-1 / श्रीप्रकाश मिश्र

फूले आसपास कास विमल अकास भयो / श्रीपति

फूले आसपास कास विमल अकास भयो, रही ना निसानी कँ महि में गरद की। गुंजत कमल दल ऊपर मधुप मैन, छाप सी दिखाई आनि विरह फरद की॥ ‘श्रीपति’ रसिक लाल आली बनमाली बिन, कछू न उपाय मेरे दिल के दरद की। हरद समान तन जरद भयो है अब, गरद करत मोहि चाँदनी सरद की॥

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जल भरे झूमैं मानौं भूमैं परसत आप / श्रीपति

जल भरे झूमैं मानौं भूमैं परसत आप, दसँ दिसान घूमैं दामिनी लये लये। धूर धार धूसरित धूम से धुँधारे कारे, घोर धुरवान धाकैं छवि सों छये छये॥ ‘श्रीपति सुकवि कहैं घरी घरी घहरात, तावत अतन तन ताप सों तये तये। लाल बिन कैसे लाज चादर रहैगी आज, कादर रजत मोहिं बादर नए-नए॥

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बैठी अटा पर, औध बिसूरत / श्रीपति

बैठी अटा पर, औध बिसूरत पाये सँदेस न ‘श्रीपति पी के। देखत छाती फटै निपटै, उछटै जब बिज्जु छटा छबि नीके॥ कोकिल कूकैं, लगै मन लूकैं, उठैं हिय कैं, बियोगिनि ती के। बारि के बाहक, देह के दाहक, आये बलाहक गाहक जी के॥

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देशांतर विमान दो / श्रीनिवास श्रीकांत

रातों-रात बदल जाते हैं फैसले रातों-रात दब जाता है आक्रोश होटलों में सहूलत की करवट लेती राजनीति विचार बदलते कोण-दर-कोण चाटता है सार्त्र और मार्क्यूस को सिरफिरों का हुजूम रक्तपिता रहता शोषित जातियों का एक नयी नस्ल का आदमी काँच हवेलियों में बंद है धूप का हर टुकड़ा आकाश का हर कोण अँजलियों के दर्पण… Continue reading देशांतर विमान दो / श्रीनिवास श्रीकांत

देशांतर विमान एक / श्रीनिवास श्रीकांत

पैरिस बुद्धिजीवियों से खाली है उद्यानों में नहीं खिलते ल्यू-चे के हाईकु बिंब नहीं गुज़रते गलियों में धुंधलकों के रेवड़ पिकासो अपने आदम कद समेत ले चुका जल जल-समाधि फ्रांस के अंगूरी तटों से उठती है महज ह्विसकी और शैंपेन की ईथर-गन्ध ड्रमों के ड्रम तैर आते समन्दर पर न रहे वो सांढ युद्ध के… Continue reading देशांतर विमान एक / श्रीनिवास श्रीकांत

उलझन / श्रीनाथ सिंह

कोई मुझको बेटा कहता , कोई कहता बच्चा । कोई मुझको मुन्नू कहता , कोई कहता चच्चा । कोई कहता लकड़ा ! मकड़ा! कोई कहता लौआ । कोई मुझको चूम प्यार से , कहता मेरे लौआ । कल आकर इक औरत बोली , तू है मेरा गहना । रोटी अगर समझती वह तो , मुश्किल… Continue reading उलझन / श्रीनाथ सिंह

सीखो / श्रीनाथ सिंह

फूलों से नित हँसना सीखो, भौंरों से नित गाना। तरु की झुकी डालियों से नित, सीखो शीश झुकाना! सीख हवा के झोकों से लो, हिलना, जगत हिलाना! दूध और पानी से सीखो, मिलना और मिलाना! सूरज की किरणों से सीखो, जगना और जगाना! लता और पेड़ों से सीखो, सबको गले लगाना! वर्षा की बूँदों से… Continue reading सीखो / श्रीनाथ सिंह