पानी-4 / श्रीप्रकाश मिश्र

जब मैं पानी की ताक़त पर बात कर रहा था मुझे अचानक याद आया चट्टान का सामर्थ्य उसे मैंने पूर्वी घाट पर देखा था हज़ारों मील के जल में घिरा अकेला तमाम चट्टानों से सैकड़ों मील दूर निरन्तर सागर के उद्वेलन को चौतरफ़ा पीछे ढकेलता अनादि काल से अकिंचन में अडिग सामर्थ्य के मुक़ाबिले अनन्त… Continue reading पानी-4 / श्रीप्रकाश मिश्र

पानी-3 / श्रीप्रकाश मिश्र

पानी शहर से गायब हो रहा था और पूरा शहर देख रहा था पानी पड़ोसी से मांग रहा था और पड़ोसी के चेहरे से पानी ग़ायब हो रहा था मैं देख रहा था राजनीति करने का यही वह मौक़ा है जिसे मैं जाने कब से खोज रहा था मैंने पानी की ओर से कहा :… Continue reading पानी-3 / श्रीप्रकाश मिश्र

पानी-2 / श्रीप्रकाश मिश्र

पानी का गीत मैंने सुना था जब वह धीरे-धीरे बह रहा था कड़ी ज़मीन पर अपनी ही तरंगों से टकराकर गा रहा था उसी गीत को मैंने सुना था जब वह पर्वतमाथ से कूदकर घाटी में भर रहा था एक सहास उठ रही थी सन्नाटे को मार रही थी हो सकता है किसी को उससे… Continue reading पानी-2 / श्रीप्रकाश मिश्र

पानी-1 / श्रीप्रकाश मिश्र

जो पत्ते की नोक से सरककर कंकड़ में छेद करता है खो जाता है रेत में रेत के गर्भ में पड़ा वह प्रतीक्षा करता है कभी-कभी तो अनन्त काल तक एक सूक्ष्मतम सूराख़ के निर्माण की जिसके सहारे निकल कर चीर दे चट्टान की छाती पर्वत का माथ और जाने कितनी बाधाओं को पारकर पहुँच… Continue reading पानी-1 / श्रीप्रकाश मिश्र