पानी-1 / श्रीप्रकाश मिश्र

जो पत्ते की नोक से सरककर
कंकड़ में छेद करता है
खो जाता है रेत में

रेत के गर्भ में पड़ा
वह प्रतीक्षा करता है
कभी-कभी तो अनन्त काल तक
एक सूक्ष्मतम सूराख़ के निर्माण की
जिसके सहारे निकल कर चीर दे
चट्टान की छाती
पर्वत का माथ
और जाने कितनी बाधाओं को पारकर
पहुँच जाए सागर में
मिल जाए पानी के साथ
जीवन देने के लिए

बिना किसी अपने निजी अस्तित्व के
अपनी मसृणता में कठोर संघर्ष की घृति
पानी का विनय है
निर्मिति का कठोर दायित्व निभाने के लिए
पानी कभी मरता नहीं
पानी जो खो जाता है रेत में
कंकड़ में छेद करता है ।

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