मेला / योगेंद्रकुमार लल्ला

आओ मामा, आओ मामा! मेला हमें दिखाओ मामा! सबसे पहले उधर चलेंगे जिधर घूमते उड़न खटोले, आप जरा कहिएगा उससे मुझे झुलाए हौले-हौले! अगर गिर गया, फट जाएगा, मेरा नया-निकोर पजामा! कठपुतली का खेल देखकर दो धड़की औरत देखेंगे, सरकस में जब तोप चलेगी कानों में उँगली रखेंगे! देखेंगे जादू के करतब, तिब्बत से आए… Continue reading मेला / योगेंद्रकुमार लल्ला

तोते जी / योगेंद्रकुमार लल्ला

तोते जी, ओ तोते जी! पिंजरे में क्यों रोते जी! तुम तो कभी न शाला जाते, टीचर जी की डाँट न खाते। तुम्हें न रोज नहाना पड़ता, ठीक समय पर खाना पड़ता। अपनी मरजी से जगते हो, जब इच्छा हो, सोते जी! फिर क्यों बोलो, रोते जी! तुम्हें न पापा मार लगाते, तुम्हें न कड़वी… Continue reading तोते जी / योगेंद्रकुमार लल्ला

कर दो हड़ताल / योगेंद्रकुमार लल्ला

कर दो जी, कर दो हड़ताल, पढ़ने-लिखने की हो टाल। बच्चे घर पर मौज उड़ाएँ, पापा-मम्मी पढ़ने जाएँ। मिट जाए जी का जंजाल, कर दो जी, कर दो हड़ताल! जो न हमारी माने बात, उसके बाँधो कस कर हाथ! कर दो उसको घोटम-घोट, पहनाकर केवल लंगोट। भेजो उसको नैनीताल, कर दो जी, कर दो हड़ताल!… Continue reading कर दो हड़ताल / योगेंद्रकुमार लल्ला

हल्ला-गुल्ला / योगेंद्रकुमार लल्ला

एक आम का पेड़, लगा था उस पर बहुत बड़ा रसगुल्ला, उसे तोड़ने को सब बच्चे मचा रहे थे हल्ला-गुल्ला! पर मेरी ही किस्मत में था उसको पाना, उसको खाना! मैंने देखा स्वप्न सुहाना! सारे बच्चे इम्तहान के दिन बैठे थे अपने घर पर, खुली किताबें रखीं सामने सभी पास हो गए नकल कर! पर… Continue reading हल्ला-गुल्ला / योगेंद्रकुमार लल्ला

हत्यारे जब बुद्धिजीवी होते हैं / योगेंद्र कृष्णा

हत्यारे जब बुद्धिजीवी होते हैं वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते बख्श देते हैं तुम्हें तुम्हारी जिंदगी बड़ी चालाकी से झपट लेते हैं तुमसे तुम्हरा वह समय तुम्हारी वह आवाज तुम्हारा वह शब्द जिसमें तुम रहते हो तुम्हारे छोटे-छोटे सुखों का ठिकाना ढूंढ लेते हैं ढूंढ लेते हैं तुम्हारे छोटे-छोटे दुखों और उदासियों के कोने बिठा… Continue reading हत्यारे जब बुद्धिजीवी होते हैं / योगेंद्र कृष्णा

सुबह के पक्ष में / योगेंद्र कृष्णा

जबतक कि मैं एक सांस लेकर दूसरी छोड़ रहा होता हूं ठीक इसी अंतराल में हो चुके होते हैं कई-कई हादसे हमारे इस शहर में जबतक कि मैं सुबह की चाय के साथ ले रहा होता हूं राहत की एक लंबी सांस अपहृत हो चुका होता है पूरा का पूरा एक लोकतंत्र ठीक मेरे पड़ोस… Continue reading सुबह के पक्ष में / योगेंद्र कृष्णा

जिस का बदन है खुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है / यूसुफ ज़फर

जिस का बदन है खुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है उस को ध्यान में लाऊँ कैसे वो सपनों का बासी है फूलों के गजरे तोड़ गई आकाश पे शाम सलोनी शाम वो राजा ख़ुद कैसे होंगे जिन की ये चंचल दासी है काली बदरिया सीप सीप तो बूँद बूँद से भर जाएगा देख… Continue reading जिस का बदन है खुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है / यूसुफ ज़फर

ऐ बे-ख़बरी जी का ये क्या हाल है काल से / यूसुफ ज़फर

ऐ बे-ख़बरी जी का ये क्या हाल है काल से रोने में मज़ा है न बहलाता है ग़ज़ल से इस शहर की दीवारों में है क़ैद मिरा ग़म ये दश्त की पहनाई में हैं यादों के जलसे बातों से सिवा होती है कुछ वहशत-ए-दिल और अहबाब परेशाँ है मिरे तर्ज़-ए-अमल से तन्हाई की ये शाम… Continue reading ऐ बे-ख़बरी जी का ये क्या हाल है काल से / यूसुफ ज़फर

गड़बड़-घोटाला / यादराम ‘रसेंद्र’

कविता करने बैठा टिल्लू कागज-कलम संभाल, बस इतना ही लिख पाया था हम भारत के लाल। इतने में आ चढ़ा गोद में उसका कुत्ता काला, लुढ़क गई दावात, हो गया सब गड़बड़-घोटाला!

कसम राम की / यादराम ‘रसेंद्र’

दूध देखकर, आँख फाड़कर, बोली मेरी नानी, ‘अरे दूधिए, हद है भैया, दूध बनाा पानी।’ हाथ जोड़कर कहे दूधिया, ‘‘कसम राम की, मैया मैंने नहीं मिलाया, पानी अधिक पी गई गैया!’