हत्यारे जब बुद्धिजीवी होते हैं / योगेंद्र कृष्णा

हत्यारे जब बुद्धिजीवी होते हैं वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते बख्श देते हैं तुम्हें तुम्हारी जिंदगी बड़ी चालाकी से झपट लेते हैं तुमसे तुम्हरा वह समय तुम्हारी वह आवाज तुम्हारा वह शब्द जिसमें तुम रहते हो तुम्हारे छोटे-छोटे सुखों का ठिकाना ढूंढ लेते हैं ढूंढ लेते हैं तुम्हारे छोटे-छोटे दुखों और उदासियों के कोने बिठा… Continue reading हत्यारे जब बुद्धिजीवी होते हैं / योगेंद्र कृष्णा

सुबह के पक्ष में / योगेंद्र कृष्णा

जबतक कि मैं एक सांस लेकर दूसरी छोड़ रहा होता हूं ठीक इसी अंतराल में हो चुके होते हैं कई-कई हादसे हमारे इस शहर में जबतक कि मैं सुबह की चाय के साथ ले रहा होता हूं राहत की एक लंबी सांस अपहृत हो चुका होता है पूरा का पूरा एक लोकतंत्र ठीक मेरे पड़ोस… Continue reading सुबह के पक्ष में / योगेंद्र कृष्णा