जीवन का अस्तित्व / मैथिलीशरण गुप्त

जीव, हुई है तुझको भ्रान्ति; शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति ! अरे, किवाड़ खोल, उठ, कब से मैं हूँ तेरे लिए खड़ा, सोच रहा है क्या मन ही मन मृतक-तुल्य तू पड़ा पड़ा। बढ़ती ही जाती है क्लान्ति, शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति ! अपने आप घिरा बैठा है तू छोटे से घेरे… Continue reading जीवन का अस्तित्व / मैथिलीशरण गुप्त

असन्तोष / मैथिलीशरण गुप्त

नहीं, मुझे सन्तोष नहीं। मिथ्या मेरा घोष नहीं। वह देता जाता है ज्यों ज्यों, लोभ वृद्धि पाता है त्यों त्यों, नहीं वृत्ति-घातक मैं, उस घन का चातक मैं, जिसमें रस है रोष नहीं। नहीं, मुझे सन्तोष नहीं। पाकर वैसा देने वाला— शान्त रहे क्या लेने वाला ? मेरा मन न रुकेगा, उसका मन न चुकेगा,… Continue reading असन्तोष / मैथिलीशरण गुप्त

बन्धन / मैथिलीशरण गुप्त

सखे, मेरे बन्धन मत खोल, आप बँधा हूँ आप खुलूँ मैं, तू न बीच में बोल। जूझूँगा, जीवन अनन्त है, साक्षी बन कर देख, और खींचता जा तू मेरे जन्म-कर्म की रेख। सिद्धि का है साधन ही मोल, सखे, मेरे बन्धन मत खोल। खोले-मूँदे प्रकृति पलक निज, फिर एक दिन फिर रात, परमपुरुष, तू परख… Continue reading बन्धन / मैथिलीशरण गुप्त

रमा है सबमें राम / मैथिलीशरण गुप्त

रमा है सबमें राम, वही सलोना श्याम। जितने अधिक रहें अच्छा है अपने छोटे छन्द, अतुलित जो है उधर अलौकिक उसका वह आनन्द लूट लो, न लो विराम; रमा है सबमें राम। अपनी स्वर-विभिन्नता का है क्या ही रम्य रहस्य; बढ़े राग-रञ्जकता उसकी पाकर सामञ्जस्य। गूँजने दो भवधान, रमा है सबमें राम। बढ़े विचित्र वर्ण… Continue reading रमा है सबमें राम / मैथिलीशरण गुप्त

बाल-बोध / मैथिलीशरण गुप्त

वह बाल बोध था मेरा निराकार निर्लेप भाव में भान हुआ जब तेरा। तेरी मधुर मूर्ति, मृदु ममता, रहती नहीं कहीं निज समता, करुण कटाक्षों की वह क्षमता, फिर जिधर भव फेरा; अरे सूक्ष्म, तुझमें विराट ने डाल दिया है डेरा। वह बाल-बोध था मेरा ।। पहले एक अजन्मा जाना, फिर बहु रूपों में पहचाना,… Continue reading बाल-बोध / मैथिलीशरण गुप्त

अर्थ / मैथिलीशरण गुप्त

कुछ न पूछ, मैंने क्या गाया बतला कि क्या गवाया ? जो तेरा अनुशासन पाया मैंने शीश नवाया। क्या क्या कहा, स्वयं भी उसका आशय समझ न पाया, मैं इतना ही कह सकता हूँ— जो कुछ जी में आया। जैसा वायु बहा वैसा ही वेणु – रन्ध्र – रव छाया; जैसा धक्का लगा, लहर ने… Continue reading अर्थ / मैथिलीशरण गुप्त

विराट-वीणा / मैथिलीशरण गुप्त

तुम्हारी वीणा है अनमोल।। हे विराट ! जिसके दो तूँबे हैं भूगोल – खगोल। दया-दण्ड पर न्यारे न्यारे, चमक रहे हैं प्यारे प्यारे, कोटि गुणों के तार तुम्हारे, खुली प्रलय की खोल। तुम्हारी वीणा है अनमोल।। हँसता है कोई रोता है— जिसका जैसा मन होता है, सब कोई सुधबुध खोता है, क्या विचित्र हैं बोल।… Continue reading विराट-वीणा / मैथिलीशरण गुप्त

झंकार (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

इस शरीर की सकल शिराएँ हों तेरी तन्त्री के तार, आघातों की क्या चिन्ता है, उठने दे ऊँची झंकार। नाचे नियति, प्रकृति सुर साधे, सब सुर हों सजीव, साकार, देश देश में, काल काल में उठे गमक गहरी गुंजार। कर प्रहार, हाँ, कर प्रहार तू मार नहीं यह तो है प्यार, प्यारे, और कहूँ क्या… Continue reading झंकार (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

निर्बल का बल / मैथिलीशरण गुप्त

निर्बल का बल राम है। हृदय ! भय का क्या काम है।। राम वही कि पतित-पावन जो परम दया का धाम है, इस भव – सागर से उद्धारक तारक जिसका नाम है। हृदय, भय का क्या काम है।। तन-बल, मन-बल और किसी को धन-बल से विश्राम है, हमें जानकी – जीवन का बल निशिदिन आठों… Continue reading निर्बल का बल / मैथिलीशरण गुप्त

निवेदन / जय भारत / मैथिलीशरण गुप्त

निवेदन अर्द्ध शताब्दि होने आई, जब मैंने ‘जयद्रथ-वध’ का लिखना प्रारम्भ किया था। उसके पश्चात् भी बहुत दिनों तक महाभारत के भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर मैंने अनेक रचनाएँ कीं। उन्हें लेकर कौरव-पाण्डवों की मूल कथा लिखने की बात भी मन में आती रही परन्तु उस प्रयास के पूरे होने में सन्देह रहने से वैसा उत्साह न… Continue reading निवेदन / जय भारत / मैथिलीशरण गुप्त