साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ २

स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहाँ किंतु सुरसरिता कहाँ, सरयू कहाँ? वह मरों को मात्र पार उतारती; यह यहीं से जीवितों को तारती! अंगराग पुरांगनाओं के धुले, रंग देकर नीर में जो हैं घुले, दीखते उनसे विचित्र तरंग हैं; कोटि शक्र-शरास होते भंग हैं। है बनी साकेत नगरी नागरी, और सात्विक-भाव से सरयू भरी।… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ २

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १

श्रीगणेशायनमः साकेत प्रथम सर्ग अयि दयामयि देवि, सुखदे, सारदे, इधर भी निज वरद-पाणि पसारदे। दास की यह देह-तंत्री तार दे, रोम-तारों में नई झंकार दे। बैठ मानस-हंस पर कि सनाथ हो, भार-वाही कंठ-केकी साथ हो। चल अयोध्या के लिए सज साज तू, मां, मुझे कृतकृत्य कर दे आज तू। स्वर्ग से भी आज भूतल बढ़… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / समर्पण / निवेदन

राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है। रचनाकार: श्री मैथिलीशरण गुप्त समर्पण पितः, आज उसको हुए अष्टाविंशति वर्ष, दीपावली – प्रकाश में जब तुम गए सहर्ष। भूल गए बहु दुःख-सुख, निरानंद-आनंद; शैशव में तुमसे सुने याद रहे ये छंद– “हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार; अब तुलसी… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / समर्पण / निवेदन

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 7

जल-सिंचन कर, और व्यंजन कर, हाथ फेर कर, किया भीम ने सजग उसे कुछ भी न देर कर। फिर आश्वासन दिया और विश्वास दिलाया, वचनामृत से सींच सींच हत हृदय जिलाया। प्रण किया उन्होंने अन्त में कीचक के संहार का, फिर दोनों ने निश्चय किया साधन सहज प्रकार का। पर दिन कृष्णा सहज भाव से… Continue reading सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 7

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 6

धर्मराज का मर्म समझ कर नत मुखवाली, अन्तःपुर को चली गई तत्क्षण पांचाली। किन्तु न तो वह गई किसी के पास वहाँ पर, और न उसके पास आ सका कोई डर कर। वह रही अकेली भीगती दीर्घ-दृगों के मेह में, जब हुई नैश निस्तब्धता गई भीम के गेह में। बन्द किए भी नेत्र वृकोदर जाग… Continue reading सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 6

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 5

धर्मराज भी कंक बने थे वहाँ विराजे, लगा वज्र-सा उन्हें मौलि पर घन से गाजे। सँभले फिर भी किसी तरह वे ‘हरे, हरे,’ कह ! हुए स्तब्ध- सभी सभासद ‘अरे, अरे,’ कह ! करके न किन्तु दृक्-पात तक कीचक उठा, चला गया, मानो विराट ने चित्त में यही कहा कि ‘भला गया’। सम्बोधन कर सभा-मध्य… Continue reading सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 5

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 4

“सुमुखि, सुन्दरी मात्र तुझे मैं समझ रहा था, पर तू इतनी कुशल ! बहन ने ठीक कहा था। इस रचना पर भला तुझे क्या पुरस्कार दूँ ? तुझ पर निज सर्वस्व बोल मैं अभी वार दूँ !” बोली कृष्णा मुख नत किए – “क्षमा कीजिए बस मुझे, कुछ, पुरस्कार के काम में, नहीं दिखता रस… Continue reading सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 4

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 3

दोष जताने से न प्यार का रंग छिपेगा, सौ ढोंगों से भी न कभी वह ढंग से छिपेगा। विजयी वल्लव लड़ा वन्य जीवों से जब जब – सहमी सबसे अधिक अन्त तक तू ही तब तब। फल देख युद्ध का अन्त में बची साँस-सी ले अहा ! तेरे मुख का वह भाव है मेरे मन… Continue reading सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 3

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 2

किन्तु तुम्हें यह उचित नहीं जो उसको छेड़ो, बुनकर अपना शौर्य्य यशःपट यों न उघेड़ो। गुप्त पाप ही नहीं, प्रकट भय भी है इसमें, आत्म-पराजय मात्र नहीं, क्षय भी है इसमें। सब पाण्डव भी होंगे प्रकट, नहीं छिपेगा पाप भी सहना होगा इस राज्य को अबला का अभिशाप भी। सुन्दरियों का क्या अभाव है, तुम्हें,… Continue reading सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 2

सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 1

सुफल – दायिनी रहें राम-कर्षक की सीता; आर्य-जनों की सुरुचि-सभ्यता-सिद्धि पुनिता। फली धर्म-कृषि, जुती भर्म-भू शंका जिनसे, वही एग हैं मिटे स्वजीवन – लंका जिनसे। वे आप अहिंसा रूपिणी परम पुण्य की पूर्ति-सी, अंकित हों अन्तःक्षेत्र में मर्यादा की मूर्ति-सी। बुरे काम का कभी भला परिणाम न होगा, पापी जन के लिए कहीं विश्राम न… Continue reading सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 1