किसान (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में बरसा… Continue reading किसान (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

नहुष (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

‘‘नारायण ! नारायण ! साधु नर-साधना, इन्द्र-पद ने भी की उसी की शुभाराधना।’’ गूँज उठी नारद की वीणा स्वर-ग्राम में, पहुँचे विचरते वे वैजयन्ती धाम में। आप इन्द्र को भी त्याग करके स्वपद का, प्राश्चित करना पड़ा था वृत्र-वध का। पृथ्वीपुत्र ने ही तब भार, लिया स्वर्ग का, त्राता हुआ नहुष नरेन्द्र सुर-वर्ग का। था… Continue reading नहुष (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

मंगलाचरण /द्वापर/ मैथिलीशरण गुप्त

धनुर्बाण वा वेणु लो श्याम रूप के संग, मुझ पर चढ़ने से रहा राम ! दूसरा रंग। श्रीकृष्ण राम भजन कर पाँचजन्य ! तू, वेणु बजा लूँ आज अरे, जो सुनना चाहे सो सुन ले, स्वर में ये मेरे भाव भरे— कोई हो, सब धर्म छोड़ तू आ, बस मेरा शरण धरे, डर मत, कौन… Continue reading मंगलाचरण /द्वापर/ मैथिलीशरण गुप्त

माँ कह एक कहानी /यशोधरा/ मैथिलीशरण गुप्त

“माँ कह एक कहानी।” बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?” “कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी? माँ कह एक कहानी।” “तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे, तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभि मनमानी।” “जहाँ… Continue reading माँ कह एक कहानी /यशोधरा/ मैथिलीशरण गुप्त

पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ५

पर मैं ही यदि परनारी से, पहले संभाषण करता, तो छिन जाती आज कदाचित् पुरुषों की सुधर्मपरता। जो हो, पर मेरे बारे में, बात तुम्हारी सच्ची है, चण्डि, क्या कहूँ, तुमसे, मेरी, ममता कितनी कच्ची है॥ माता, पिता और पत्नी की, धन की, धरा-धाम की भी, मुझे न कुछ भी ममता व्यापी, जीवन परम्परा की… Continue reading पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ५

पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ४

यदि बाधाएँ हुईं हमें तो, उन बाधाओं के ही साथ, जिससे बाधा-बोध न हो, वह सहनशक्ति भी आई हाथ। जब बाधाएँ न भी रहेंगी, तब भी शक्ति रहेगी यह, पुर में जाने पर भी वन की, स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह॥ नहीं जानती हाय! हमारी, माताएँ आमोद-प्रमोद, मिली हमें है कितनी कोमल, कितनी बड़ी प्रकृति की… Continue reading पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ४

पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ३

वैतालिक विहंग भाभी के, सम्प्रति ध्यान लग्न-से हैं, नये गान की रचना में वे, कवि-कुल तुल्य मग्न-से हैं। बीच-बीच में नर्तक केकी, मानो यह कह देता है– मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कल, कौन बड़ाई लेता है॥ आँखों के आगे हरियाली, रहती है हर घड़ी यहाँ, जहाँ तहाँ झाड़ी में झिरती, है झरनों की झड़ी… Continue reading पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ३

पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ २

सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है, अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है! अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है, पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥ तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात, वन को आते देख हमें जब,… Continue reading पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ २

पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ १

पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को, चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को। उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि “तुम कहाँ?” विनत वदन से उत्तर पाया—”तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥” सीता बोलीं कि “ये पिता की, आज्ञा से सब छोड़ चले, पर देवर, तुम त्यागी… Continue reading पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ १

जयद्रथ-वध / द्वितीय सर्ग / भाग २ / मैथिलीशरण गुप्त

कहती हुई बहु भाँति यों ही भारती करुणामयी, फिर भी मूर्छित अहो वह दु:खिनी विधवा नई, कुछ देर को फिर शोक उसका सो गया मानो वहाँ, हतचेत होना भी विपद में लाभदायी है महा॥ उस समय ही कृष्णा, सुभद्रा आदि पाण्डव-नारियाँ, मनो असुर-गण-पीड़िता सुरलोक की सुकुमारियाँ, करती हुईं बहु भाँति क्रंदन आ गईं सहसा वहाँ,… Continue reading जयद्रथ-वध / द्वितीय सर्ग / भाग २ / मैथिलीशरण गुप्त